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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८५) आचार्य वसुनन्दि भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते। विकृतिर्निष्क्रान्तं भोजनं निर्विकृतिः। अर्थ- जिसके आहार से जिह्वा और मन में विकार पैदा होता है उसे विकृति कहते हैं। जैसे- दूध, घी आदि गोरस, खाण्ड, गुड आदि इक्षुरस, दाख, आम आदि फल-रस और तेल, माण्ड आदि धान्य रस। ऐसे चार प्रकार के रस विकृति है। ये जिस आहार में न हों वह निर्विकृति है। जिसको मिलाकर भोजन करने से भोजन में विशेष स्वाद आता है उसको विकृति कहते हैं। इस विकृति रहित भोजन अर्थात् व्यंजनादिक से रहित भात आदि का भोजन निर्विकृति है। ... एकस्थान- एकासन, एयठाण और एकस्थान यह सभी एकार्थवाची हैं। चूंकि इन सभी का अर्थ एकस्थान होता है, किन्तु यहाँ आहार का प्रकरण होने से एकस्थान का भोजन अर्थ लेना चाहिए। कुछ विद्वान् इसका अर्थ थाली में एक बार परोसा गयाभोजन भी करते हैं। आगम में इनका उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया है। श्वेताम्बर विद्वान् जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूर्णि में लिखा है- एकट्ठाणे जं जथा अंगुवंगं, ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, आगारे से आउटण पसारणं नत्थि। अर्थजिस आसन से भोजन को बैठे, उससे दाहिने हाथ और मुंह को छोड़कर कोई भी अंग-उपांग को चल-विचल न करे, यहाँ तक कि किसी अंग में खुजलाहट उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिए दूसरा हाथ भी नहीं उठाना चाहिए। आ० सिद्धसेन ने प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में भी ऐसा ही अर्थ किया है. एकं-अद्वितीयं, स्थान-अंगविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानप्रत्याख्यानम्। तद्यथाभोजनकालेंगोपाङ्गं स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थिति एवं भोक्तव्यम्। मुख्यस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वच्चलनमप्रतिषिद्धमिति। ... अर्थ पूर्व सूत्रवत् है। - एकभक्त- एक-भक्त = एकभक्त अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना एकभक्त है। इसे एकाशन, एकात्त, एयभत्त भी कहते हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में इसका अर्थ समान ही किया गया है। अ० कुन्दकुन्द ने मूलाचार में कहा हैउदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिये वा मुहुत्तकालेय भत्तं तु।।३८।। - १. भगवती आराधना/मूलाराधना टीका, २५४/४७५/१९.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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