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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०६)
आचार्य वसुनन्दि पहने और हाथ में मांस का झोला लिये आचारवान् लोगों को भी देखा जा सकता है, जो मांस भक्षण में धर्म मानते हैं।
ऐसे लोगों को लक्ष्य कर ही आशाधर जी ने उपरोक्त श्लोक लिखा है। मनुस्मृति में मांस भक्षण का विधान भी मिलता है और विरोध भी। विरोध में लिखाहै, जो व्यक्ति पशु को मारने की सम्मति देता है, जो पशुवध करता है, जो उसके अंग-अंग पृथक् करता है, जो मांस बेचता या खरीदता है, जो पकाता है, जो परोसता है और जो खाता है ये सभी पशु को मारने वाले के समान अपराधी हैं। (५/५१)। किन्तु आगे ही लिखा . है - 'मांस भक्षण आदि में दोष नहीं है। ये तो प्राणियों की प्रवृत्तियां हैं। किन्तु ‘इनकी निर्वृत्ति का महाफल है।' जिनके त्याग का महाफल है उनका सेवन निदोष कैसे हो सकता है? यह स्ववचन विरोध है।
__ आशाधर जी आगे कहते हैं - स्वयं मरे हए भी मच्छ, भैंसा आदि के मांस को खाने वाला और छूने वाला भी हिंसक है; क्योंकि उस मांस की पकी हुई और बिना पकी डलियों में सदा निगोदिया जीवों के समूह उत्पन्न होते रहते हैं। ___ आशाधर जी से पूर्ववर्ती आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहते हैं - स्वयं मरे हुए भैंसा, बैल आदि का जो मांस होता है, उसमें भी हिंसा होती है, क्योंकि उस मांस के आश्रय से जो निगोदिया जीव उत्पन्न होते हैं उनका तो घात होता ही है। कच्ची, पकी हुई तथा पकती हुई मांस की डलियों में उसी जाति के निगोदिया जीव हमेशा उत्पन्न होते रहते हैं। अत: जो मांस डली को खाता है वह बहुत से जीवों का घात करता है। १ इनके भी पहले आचार्य हरिभद्र ने भी यही बातें अपने सम्बोध प्रकरण में कही हैं।२
शंका- कुछ मांसभक्षी यह दलील देते हैं कि जैसे अन्न जीव का शरीर है वैसे ही मांस भी जीव का शरीर है अत: अन्न की तरह मांस भी खाद्य है?
समाधान- इस कथन का खण्डन करते हुए आचार्य सोमदेव अपने उपासकाचार (३०२-३०५) में कहते हैं - मांस जीव का शरीर है यह ठीक है; किन्तु जो-जो जीव का शरीर है वह माँस है, ऐसी व्याप्ति नहीं है। जैसे नीम वृक्ष है यह ठीक है; किन्तु जो-जो वृक्ष हैं वह नीम है यह कहना ठीक नहीं है तथा जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों जीव हैं फिर भी पक्षी को मारने की अपेक्षा ब्राह्मण को मारने में ज्यादा पाप है। वैसे ही फल भी जीव का शरीर है और मांस भी जीव का शरीर है; किन्तु फल खाने की अपेक्षा मांस खाने में ज्यादा पाप है, जो यह कहता है कि फल और मांस दोनों ही जीव का शरीर होने से समान है उसके लिए पत्नि और माता दोनों ही स्त्री होने
१. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय,श्लो०६६-६८.२. संबोध प्रकरण, गाथा ६/१७५.