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विसुनन्दि-श्रावकाचार. (१०५) आचार्य वसुनन्दि
- लौकिक शास्त्रों में मांस के दोष लोइय' सत्थम्मि वि वण्णियं जहा गयण-गामिणो विण्या। भुवि मंसासणेण पडिया तम्हा ण पउंजए' मंसं।। ८७।।
अन्वयार्थ- (लोइय सत्यम्मि वि) लौकिक शास्त्रों में भी, (वण्णिय) वर्णित है, (जहा) जैसे, (गयण गामिणो विप्पा) गमन गामी विप्र, (मंसासणेण) मांस खाने से, (भुवि पडिया) पृथ्वी पर गिर पड़े, (तम्हा) इसलिए, (मंसं ण पउंजए) मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
· अर्थ- लौकिक शास्त्रों में कहा है कि मांस खाने से आकाश में चलने वाले ब्राह्मण भी मांस के दोष से धरती पर गिर पड़े, उनकी आकाश में चलने की विद्या नष्ट हो गई। इसलिए बुद्धिमानों को कभी भी मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
व्याख्या- पं० आशाधर जी मांस की निन्दा करते हए सागार धर्मामत में लिखते हैं -
स्थानेऽश्नन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचिकश्मलाः । .. श्वादिलालावदप्यधुः शुचिम्मन्याः कथन्नु तत् ।।६।। (अ० २) . अर्थात् मांस स्वभाव से अपवित्र है और कारण से भी अपवित्र है (ऐसे अपवित्र मांस को जाति और कुल के आचार से हीन लोग खायें तो ठीक भी हो सकता है) किन्तु अपने को विशुद्ध आचारवान् मानने वाले कुत्ते की लार के तुल्य भी उस मांस को कैसे खाते हैं? यही आश्चर्य है। - इसी बात को आचार्य सोमदेव भी कहते है -
स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गति प्रदम ।।
(सोम०उपा०, २७९ श्लोक) स्थल प्राणी के घात हए बिना मांस पैदा नहीं होता। और स्थल प्राणी की उत्पत्ति माता-पिता के रज-वीर्य से होती है। अत: मांस का कारण भी अपवित्र है और मांस स्वयं अपवित्र है ही उस पर मक्खियां भिन-भिनाती हैं, चील, कौए उसे देखकर मंडराते हैं। कसाईखाने को देखना कठिन होता है। ऐसे घृणित मांस को कुछ सभ्य लोग होटलों में बैठकर खाते ही हैं; किन्तु गंगा स्नान करके किसी के छु जाने के भय से गीली धोती
स्वभाव
१. ब. लोइये. .. २. इ. 'न वज्जए', झ. न पवज्जए इति पाठः .