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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०४) यावज्जीवं च यो मांसं विषवत्परिवर्जयेत् । वशिष्ठो भगवान्नाह प्राप्नुयात्स्वर्गसम्पदम् ।। आचार्य वसुनन्दि सम्पूर्ण जीवन जो मांस को विषतुल्य त्याग कर देता है वैदिक ऋषि वशिष्ठ भगवान् कहते है वह स्वर्ग सम्पत्ति को प्राप्त करता है। हिन्दू धर्म में कहा गया है कि पहले धर्मात्मा शाकाहारी ब्राह्मण धर्मशक्ति से आकाश में उड़कर गमन करते थे, परन्तु ब्राह्मण लोग मांस खाने से धार्मिक शक्ति क्षीण हो गई तब से ब्राह्मण लोग जमीन पर चलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मांस नहीं खाने से कितनी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है और खाने से कितनी क्षति होती है। रक्तमात्र प्रवाहेण स्त्री निंद्या जायते स्फुटं । द्विधातुंजं पुनर्मांस पवित्रं जायते कथं ।। रितुवती के समय में अर्थात् रज निकलने से स्त्री अपवित्र हो जाती है और निश्चय से निन्दनीय होती है। परन्तु मांस रज एवं वीर्य दो धातुं से बनता है तब मांस पवित्र कैसे हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता है; क्योंकि इसमें तो दो अपवित्र वस्तुओं का मिश्रण है। मांस भक्षण के और भी दोष मंसासणेण वड्डई दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पिवण्णिए पाउणए दोसे ।। ८६ । । अन्वयार्थ— (मंसासणेण) मांस खाने से, (दप्पो वड्डइ) दर्प बढ़ता है, (दप्पेण मज्जमहिलसइ) दर्प से वह शराब पीने की इच्छा करता है, (जूयं पि. रमइ) जुआ भी खेलता है, (तो) (इसप्रकार ) वह, (तपि) उन सभी, (वण्णिए दोसे) कहे गये दोषों को, (पाउणए) प्राप्त होता है। भावार्थ- मांस के सेवन से दर्प अर्थात् अभिमान बढ़ता है, अभिमान से वह मांसाहारी व्यक्ति शराब पीने की इच्छा करता है, इसी कारण जुआ भी खेलता है और धीरे-धीरे वह व्यक्ति ऊपर कहे हुए सभी दोषों को करने लगते है। कहने का तात्पर्य है कि एक व्यसन का सेवन करने से वह सातों व्यसनों में लिप्त हो जाता है और अपनी पारिवारिक सुख-शान्ति को नष्ट कर नारकी जैसा जीवन जीने लगता है ।। ८६ ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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