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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
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परिशिष्ट
एक दिन दरबार में उग्रसेन ने यह घोषणा की कि आज की आने वाली भेंट का आधा हिस्सा वृषभसेना को और आधा मेघपिंगल को दिया जायगा । उस दिन भेंट बहुमूल्य वस्तुओं के अतिरिक्त दो कम्बल प्राप्त हुए। राजा ने अपनी घोषणा के अनुसार आधा-आधा द्रव्य और एक-एक कम्बल मेघपिंगल और वृषभसेना के यहाँ भिजवा दिये। संयोग से मेघपिंगल की रानी यही कम्बल ओढकर वृषभसेना के महल में आयी। वृषभसेना के पास भी ऐसा ही कम्बल था। वह भूल से अपना कम्बल वहीं छोड़ वृषभसेना का कम्बल ओढ़कर लौट आयी। कुछ दिनों बाद मेघपिंगल को दरबार में जाना पड़ा। वह वृषभसेना का कम्बल ओढ़े चला गया। राजा ने कम्बल पहचान लिया। उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। वे सोचने लगे कि वृषभसेना का कम्बल इसके पास कैसे गया? उग्रसेन के क्रोधित होने का कारण मेघपिंगल की समझ में न आया। वहाँ से हट जाना ही उसके लिये उचित था । वह एक तेज घोड़े पर सवार होकर दूर निकल गया। इस प्रकार मेघपिंगल को भागते देखकर राजा का सन्देह और भी बढ़ा। उन्होंने मेघपिंगल को पकड़ लाने के लिये कुछ तेज सवारों को दौड़ाया, इधर वृषभसेना' को समुद्र में फिकवाने की आज्ञा दे दी। निर्दोष वृषभसेना समुद्र में फेंक दी गयी। पर यदि मनुष्य निष्कलंक है तो उसका बाल भी बाँका नहीं हो सकता। वृषभसेना को अपनी पवित्रता पर पूर्ण विश्वास था। वह परमात्म प्रेम में लीन हो गई। उस समय वृषभसेना की तेजस्विता ने ज्योति का रूप धारण किया। उस ज्योति के समक्ष देवों को भी सर झुकाना पड़ा। उन्होंने वृषभसेना को एक सिंहासन पर बिठाकर पूजा की और जय-जयकार मनाया। जब वृषभसेना के शील का माहात्म्य उग्रसेन को मालूम हुआ तो उन्हें महान् पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने वृषभसेना के समक्ष जाकर क्षमा माँगी और महल में चलने की प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेना प्रतिज्ञा कर चुकी थी कि इस कष्ट से मुक्त होने पर योगिनी बनकर आत्महित करूंगी, पर स्वयं महाराज लिवाने आये तो उसने महल में एक बार जाकर दीक्षा लेने का निश्चय किया। रास्ते में गुणधर मुनिराज के दर्शन हुए। वृषभसेना ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उसने मुनि से पूर्वजन्म का हाल पूछा। मुनि ने बतलाया कि पूर्वजन्म में ब्राह्मण की लड़की थी। तेरा नाम नागश्री था। तू इसी राजघराने में झाडू दिया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के मुनिराज कोट के अन्दर एक पवित्र गढ़े में ध्यान कर रहे थे। उस वक्त तूने मूर्खता से कहा- ओ नंगे ढोंगी! उठ यहाँ से, मुझे झाडू देने दे। मुनि तो ध्यानमग्न थे। उन्होंने तेरी बातों पर ध्यान न दिया। तुझे और क्रोध हुआ। तूने कूड़े-करकट से मुनि को ढंक दिया। यद्यपि तू उस समय मूर्ख थी, पर तूने वह काम बुरा किया। सच्चे निर्ग्रन्थ साधु सदा पूजने योग्य होते हैं। उन्हें कष्ट देना उचित नहीं । प्रातःकाल जब राजा उधर से निकले तो उनकी दृष्टि गढ़े पर पड़ी। मुनि के साँस लेने से कूड़ा नीचे ऊँचे हो रहा था। उन्हें सन्देह हुआ। उन्होंने कूड़े को हटाया तो मुनि दिख पड़े। मुनि शीघ्र ही गढ़े से निकाले गये। तुझे भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। तूनें मुनि से अपने अपराधों की क्षमा माँगी। मुनि