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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२१ __परिशिष्ट बड़ी प्रसिद्धि हुई। वह इसी जल से असाध्य से असाध्य रोगों की चिकित्सा करने लगी। उग्रसेन और मेघपिंगल की पुरानी शत्रुता थी। एक बार उग्रसेन ने अपने मन्त्री को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा प्रदान की। मेघपिंगल ने यह योजना की कि जिन कूपों से शत्रु सेना में पीने के लिये जल आता था, उसमें विष डलवा दिया। बहुत सी सेना मर गयी और जो सैनिक बचे वे भाग खड़े हुए। जिन लोगों को विष का असर हुआ था उन्हें रूपवती ने उसी जल से आराम किया। यह हाल सुनकर उग्रसेन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने स्वयं आक्रमण किया। किन्तु उन्हें भी जहर मिला हुआ जल पीना पड़ा। उग्रसेन की तबियत बहुत बिगड़ गयी। उन्हें रूपवती के जल का प्रभाव मालूम था। उन्होंने एक आदमी को सेठ के यहाँ से जल लाने के लिए भेजा। उसी समय रूपवती जल लेकर राजा के यहाँ पहँची। जल के स्पर्श से ही राजा रोगमुक्त हो गये। उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। जल के सम्बन्ध में पूछने पर रूपवती ने सब बातें बतला दीं। राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और आदर-सत्कार कर वृषभसेना से विवाह की इच्छा प्रकट की। धनपति ने उत्तर दिया – महाराज मुझे विवाह कर देने में कोई आपत्ति नहीं। किन्तु आपको अष्टाह्रिक पूजा करनी पड़ेगी और अभिषेक करना पड़ेगा। पिंजरे के पशु-पक्षी तथा जेल के कैदियों को छोड़ना पड़ेगा। उग्रसेन ने शर्त स्वीकार कर ली और उन्हें कार्य में भी परिणत कर दिया। बड़ी धूमधाम से वृषभसेना का विवाह हआ। उसे पटरानी होने का सौभाग्य मिला। उग्रसेन भी अन्य रानियों की अपेक्षा वृषभसेना से अधिक प्रेम करने लगे; किन्तु वृषभसेना का समय पूजा अभिषेक में ही अधिक व्यतीत होता था। वह साधुओं को चारों प्रकार के दान देती और व्रत, तप, शील, संयमादिक का यथासाध्य पालन करती थी। बनारस का राजा पृथ्वीचन्द्र, उग्रसेन के यहाँ कैद था। वृषभसेना के विवाह के समय भी उसकी मुक्ति न हुई। पृथ्वीचन्द्र की पत्नी नारायणदत्ता को आशा थी कि उसके पति छोड़ दिये जायेंगे, पर उसकी आशा सफल न हो सकी। पर अपने मन्त्रियों की राय से उसने दूसरी ही युक्ति सोची। नारायणदत्ता ने वृषभसेना के नाम से बनारस में कई दानशालायें बनवा दीं। वहाँ स्वदेशी और विदेशी सबको समान रूप से भोजन मिलने लगा। थोड़े ही दिनों में दानशालाओं की प्रसिद्धि हो गयी। दूर-दूर के ब्राह्मण भोजन के लिये आने लगे। जब यह संवाद वृषभसेना को मिला तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। पता लगाने पर असली रहस्य खुला। वृषभसेना ने उग्रसेन से प्रार्थना कर उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र ने कृतज्ञता स्वीकार की। पहले उल्लेख किया जा चुका है कि मेघपिंगल से उग्रसेन की शत्रता थी। अब उग्रसेन ने पृथ्वीचन्द्र को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी। मेघपिंगल डर गया; क्योंकि वह पृथ्वीचन्द्र से कई बार हार मान चुका था। उसने लड़ना उचित न समझा। अत: उग्रसेन की शरण में आ गया।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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