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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (३०८) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आ० अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है इयमेकैव समर्थाधर्मस्वं मे ममा समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या । । १७४ । । अर्थ — यह सल्लेखना ही एकमात्र ऐसी है जो मेरे तप त्याग, व्रत- शील, धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले जाने में समर्थ है, इसलिए हमेशा ही भक्तिपूर्वक सल्लेखना की भावना करना चाहिए । । ३१३ । । रात्रिभोजनदोष - वर्णन रात्रिभोजी के प्रतिमाएँ नहीं ठहरती एयारसेसु पढमं वि' जदो णिसिभोवणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुक्तिं परिहरे णियमा । । ३१४ ।। - अन्वयार्थ – (जदो) चूँकि, (णिसिभोवणं. कुणंतस्स) रात्रिभोजन करने वाले h, (एयरसेसु पढमं ठाणं वि) ग्यारह में से पहला स्थान भी, (ण ठाइ) नहीं ठहरता, (तम्हा) इसलिए, (णियमा) नियम से, ( णिसिभुत्तिं) रात्रि भोजन का, (परिहरे) परिहार करना चाहिए | १. अर्थ - चूंकि, रात्रि को भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं में से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए रात्रि भोजन का त्यांग करना चाहिए। व्याख्या— भोजन के चार भेद हैं- खाद्य- स्वाद्य- लेह्य और पेय । खाद्य — खाने योग्य पदार्थ, खाद्य है । यथा - रोटी, भात, कचौड़ी, पूड़ी आदि । स्वाद्य — स्वाद लेने योग्य पदार्थ स्वाद्य है । यथा चूर्ण, ताम्बूल, सुपारी आदि । लेह्य — चाटने योग्य पदार्थ लेह्य है । यथा— रबड़ी, मलाई, चटनी आदि । - पेय— पीने योग्य पदार्थ पेय है । यथा पानी, दूध, शरबत आदि । रात्रिकाल में चारों प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग करना, रात्रिभोजन त्याग नामक व्रत है। रात्रि भोजन त्यागी को भोजन का त्याग कब करना चाहिये ? यह बताते हुए आ० पूज्यपाद कहते हैं कि दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तं प्राहुराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम्।। (पूज्यपाद श्रावकाचार, ९४ ) . ब. पि. ब. वाइ..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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