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वसुनन्दि-श्रावकाचार - ३२५
परिशिष्ट दी। उस बगीचे का माली पेड़ के ऊपर चढ़ा था। उसने मेंढा को मारते हुए राजकुमार को देख लिया था। माली ने रात में यह बात अपनी स्त्री से कही। तदनन्तर छिपे हुए गुप्तचर पुरुष ने राजा से यह समाचार कह दिया। प्रात:काल माली भी बुलाया गया। उसने भी यह समाचार फिर कह दिया। मेरी आज्ञा को मेरा पुत्र ही खण्डित करता है इससे रुष्ट होकर राजा ने कोटपाल से कहा कि बलकुमार के नौ टुकड़े करा दो अर्थात् उसे मरवा दो।
- तदनन्तर उस कुमार को मारने के स्थान पर ले जाकर चाण्डाल को लाने के लिये जो आदमी गये थे उन्हें देखकर चाण्डाल ने अपनी स्त्री से कहा कि हे प्रिये! तुम इन लोगों से यह कह दो कि चाण्डाल गाँव गया है। ऐसा कहकर वह घर के कोने में छिप कर बैठ गया। जब सिपाहियों ने चाण्डाल को बुलाया तब चाण्डाली ने कह दिया कि वह आज गाँव गया है। सिपाहियों ने कहा कि वह पापी अभागा आज गाँव चला गया। राजकुमार को मारने से उसे बहुत भारी सुवर्ण और रत्नादिका लाभ होता। उनके वचन सुनकर चाण्डाली को धन का लोभ आ गया। अत: वह मुख से तो बार-बार यही कहती रही कि वह गाँव गया है, परन्तु हाथ के संकेत से उसे दिखा दिया। तदनन्तर सिपाहियों नेउसे घर से निकाल कर मारने के लिए वह राजकुमार सौंप दिया। चाण्डाल ने कहा कि मैं आज चतर्दशी के दिन जीवघात नहीं करता हूँ। तब सिपाहियों ने उसे ले जाकर राजा से कहा कि देव!. यह राजकुमार को नहीं मार रहा है। उसने राजा से कहा कि एक बार मुझ साँप ने डस लिया था, जिससे मृत समझ कर मुझे श्मशान में डाल दिया गया था। वहाँ सर्वौषधि ऋद्धि के धारक मुनिराज के शरीर की वायु से मैं पुनः जीवित हो गया। उस समय मैंने उन मुनिराज के पास चतुर्दशी के दिन जीवघात न करने का व्रत लिया था, इसलिये आज मैं नहीं मार रहा हूँ- आप जो समझे सो करें। 'अस्पृश्य चाण्डाल के भी व्रत होता है' यह विचार कर राजा बहुत रुष्ट हुआ और उसने दोनों को मजबूत बँधवाकर सुमार (शिशुमार) नामक तालाब में डलवा दिया। उन दोनों में चाण्डाल ने प्राणघात होने पर भी अहिंसा व्रत को नहीं छोड़ा था, इसलिये उसके व्रत के माहात्म्य से जलदेवता ने जल के मध्य सिंहासन, मणिमय मण्डप, दुन्दुभिबाजों का शब्द तथा साधुकार - अच्छा किया आदि शब्दों का उच्चारण, यह सब महिमा की। महाबल राजा ने जब यह समाचार सुना तब भयभीत होकर उसने चाण्डाल का सम्मान किया तथा अपने छत्र के नीचे उसका अभिषेक कराकर उसे स्पर्श करने के योग्य विशिष्ट पुरुष घोषित कर दिया। यह प्रथम अणुव्रत की कथा पूर्ण
सत्याणुव्रत से धनदेव सेठ ने पूजातिशय को प्राप्त किया था। उसकी कथा इस प्रकार है -