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( वसुनन्दि- श्रावकाचार
६. धनदेव की कथा (सत्याणुव्रत)
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामक नगरी है। उसमें जिनदेव और धनदेव नाम के दो अल्प पूँजी वाले व्यापारी रहते थे। उन दोनों में धनदेव सत्यवादी था। एक बार वे दोनों 'जो लाभ होगा उसे आधा-आधा ले लेवेंगे। ऐसे बिना गवाह की व्यवस्था कर दूर देश गये। वहाँ बहुत-सा धन कमाकर लौटे और कुशलपूर्वक पुण्डरीकिणी नगरी आ गये। उनमें जिनदेव, धनदेव के लिये लाभ का आधा भाग नहीं देता था। वह उचित समझकर थोड़ा-सा द्रव्य उसे देता था। तदनन्तर झगड़ा होने पर न्याय होने लगा। पहले कुटुम्बीजनों के सामने, फिर महाजनों के सामने और अन्त में राजा के आगे मामला उपस्थित किया गया। परन्तु बिना गवाही का व्यवहार होने से जिनदेव कह देता कि मैंने इसके लिये लाभ का आधा भाग देना नहीं कहा था, उचित भाग ही देना कहा था। धनदेव सत्य ही कहता था कि दोनों का आधा-आधा भाग ही निश्चित हुआ था । तदनन्तर राजकीय नियम के दोनों अनुसार उन को दिव्य न्याय दिया गया। अर्थात् उनके हाथों पर जलते हुए अङ्गारे रखे गए। इस दिव्यन्याय से धनदेव निर्दोष सिद्ध हुआ, दूसरा नहीं । तदनन्तर सब धन धनदेव के लिये दिया गया और धनदेव सबलोगों के द्वारा पूजित हुआ तथा धन्यवाद को प्राप्त हुआ। इस प्रकार दूसरी अणुव्रत की कथा है।
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परिशिष्ट
चौर्यविरति अणुव्रत से वारिषेण ने पूजा का अतिशय प्राप्त किया था। इसकी कथा स्थितिकरणगुण के व्याख्यान के प्रकरण में कही गई है। वह इस प्रकरण में भी देखना चाहिये। ब्रह्मचर्याणुव्रत से नीली नाम की वणिक्पुत्री पूजातिशय को प्राप्त हुई है। उसकी कथा प्रकार है -
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७. वारिषेण कुमार की कथा ( अचौर्याणुव्रत)
सम्यग्दर्शन के छठवे अंग, स्थितिकरण की कथा में लिखे आये हैं कि पूर्वकाल में राजगृह नगर के राजा श्रेणिक थे, उनके कई पुत्रों में से एक का नाम वारिषेण था।
उसी राजगृही नगरों में विद्युत चोर रहता था । उसकी प्रीति मगध सुन्दरी वेश्या से थी। चौदश की रात्रि को जब विद्युत चोर वेश्या के पास गया तो उसने कहा कि श्रीकीर्ति सेठ के यहाँ जो रत्नहार है वह मुझे ला दीजिये । वेश्या के कहने से विद्युत चोर रत्नहार तो चुरा लाया, परन्तु शहर के कोतवाल ने चोर के पास चमकता हुआ पदार्थ देखकर उसका पीछा किया। चोर भी मगधसुन्दरी के पास न जाकर भागते-भागते मुर्दाखाने में पहुँचा। वहाँ वारिषेणकुमार खड़े हुए सामायिक कर रहे थे, सो उनके पास रत्नहार फेंककर वह चोर कहीं छिप गया।
जब कोतवाल वारिषेण के पास पहुँचा और उनके सामने रत्नहार रक्खा देखा तो उसे सन्देह हुआ कि वारिषेण ही यह हार चुरा लाये हैं, और सामायिक का पाखण्ड
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