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________________ (६३) अवश्य कर दिया।' जिनसेन (८- ९ वीं शती) ने भी रविषेण का ही अनुकरण किया। मात्र अन्तर यह है कि यहाँ रात्रिभोजनत्याग के स्थान पर परस्त्रीत्याग का निर्धारण किया गया है।२ महापुराण का उल्लेख कर चामुण्डराय ने स्पष्टतः समन्तभद्र का साथ दिया है। परन्तु महापुराण में यह प्रतिपादक श्लोक उपलब्ध नहीं । वसुनन्दि ने उनका स्पष्टतः यह उल्लेख अवश्य नहीं किया पर दर्शन प्रतिमाधारी को पंचोदुम्बर तथा सप्तव्यसन का त्यागी बताया है और यही मद्य-मांस-मधु के दुर्गुणों का उल्लेख किया है । ४ सोमदेव, ५ देवसेन,' पद्यनन्दी,७ अमितगति, ' आशाधर, अमृतचन्द्र १° आदि आचार्यों ने प्रायः समन्तभद्र का अनुकरण किया है। आशाधर ने जलगालन को भी अष्टमूलगुणों में माना है (स.ध. २.१८)। इस पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट है कि अष्टमूलगुण की परम्परा आचार्य समन्तभद्र ने प्रारम्भ की जिसे किसी न किसी रूप में उत्तरकालीन प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया। अर्धमागधी आगमशास्त्रों में भी मूल गुणों का उल्लेख देखने में नहीं आया। अतः यह हो सक़ता है कि समन्तभद्र के समय मद्य, मांस, मधु का अधिक प्रचार हो गया हो और फलतः उन्हें उनके निषेध को व्रतों में सम्मिलित करने के लिए बाध्य होना पड़ा हो। अषृमूलगुण परम्परा की इस इतिहास कथा में सामाजिक प्रदूषण की इतिहास कथा छिपी हुई है। ५. षटकर्म : आध्यात्मिक धर्म यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कुन्दकुन्द, जटासिंहनन्दि तथा जिनसेन ने दान, पूजा, तप और शील को, श्रावकों का कर्तव्य कहा। उत्तरकाल में इन्हीं का विकास कर आचार्यों . ने षटकर्मों की भी स्थापना कर दी। भगवज्जिनसेनाचार्य ने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को श्रावक के कुलधर्म के रूप में स्थापित किया । ११ सोमदेव और पद्मनन्दि ने भी इन्हें षट्कर्मों के नाम से स्वीकार किया। वार्ता, स्वाध्याय, और संयम को शील के ही अंग-प्रत्यंग मानकर यह संख्या बढ़ाई गई होगी, ऐसा न मानकर उन्हें स्वतंत्र ही कहना चाहिए। १२ १. कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, ३२८. ३. चारित्रसार, ११.१२२. ४. ६. ८. हरिवंशपुराण, १८.४८. वसुनन्दि श्रावकाचार, १२५-१३३. भावसंग्रह, ३५६. ५. उपासकाध्ययन, ८.२७०. ७. पद्मनन्दि पचविंशतिका, २३. ९. सागारधर्मामृत, २.१८. ११. आदिपुराण, ४१.१०४; ८.१७८; ३८.२४.२५. १२. उपासकाध्ययन, भूमिका, पृ. ६५-६६. १०. सुभाषितरत्नसंदोह, ७६५. पुरुषार्थ सुद्ध्युपाय, ६१-७४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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