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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०४)
आचार्य वसुनन्दि के समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्न के साथ सर्वदोषों की आलोचना करे अर्थात् चर्या आदि में लगे हए दोषों को गुरु के सामने कहे, और गोचरी सम्बन्धी प्रतिक्रमण भी करे। व्याख्या- आ० समन्तभद्र ने कहा है
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य।
भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः।।१४७।। अर्थ- जो घर से मनियों के वन को जाकर गुरु के पास व्रत ग्रहण कर भिक्षा भोजन करता हुआ तपश्चरण करता है तथा वस्त्र के एक खण्ड को धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक है।
चरित्रसार (पृष्ठ १९) में कहा है- उद्दिष्टविरत श्रावक अपने उद्देश्य से बनाये : गये भोजन, उपधि, शयन, वस्त्र आदि को ग्रहण नहीं करता है, भिक्षाभोजी और बैठकर हस्तपुट में भोजन करता है, रात्रिप्रतिमा आदि तप करता है, आतापन आदि योग नहीं । करता है। स्वामिकार्तिकेय ने कहा है
जो गण कोडि विसुद्धं भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्ज। जायण-रहियं जोग्गं उद्दिट्टाहार-विरदो सो।।३९०।।
अर्थ- जो श्रावक भिक्षाचरण के द्वारा बिना याचना किये, नव कोटि से शुद्ध योग्य आहार को ग्रहण करता है वह उद्दिष्ट आहार का त्यागी है।
आ० समन्तभद्र स्वामी ने इस प्रतिमा का नाम 'भैक्ष्याशन' दिया है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह उद्दिष्ट आहार का त्यागी है। यह गुरु के समीप रहता है और वस्त्र का केवल एक खण्ड (टुकड़ा) रखता है।
इस प्रतिमा का विशद वर्णन अमितगति श्रावकाचार और सागार धर्मामृत में दृष्टव्य है।।३०२-३१०।।
द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) का स्वरूप एमेव होइ बिइओ णवरिविसेसो कुणिज्ज णियमेण। . लोचं धरिज पिच्छं अँजिज्जो पाणिपत्तम्मि।। ३११।।
अन्वयार्थ- (एमेव) इस प्रकार ही, (बिइयो) द्वितीय श्रावक, (होइ) होता है, (णवरिविसेसो) केवल विशेषता यह है (कि उसे), (णियमेण) नियम से (लोचं) केशलोंच (कुणिज्ज) करना चाहिए, (पिच्छं धरिज्ज) पीछी रखना चाहिए (और)