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________________ (६६) होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है। मद्य, मांस, मधु तथा . पंचोदुम्बर फलों का भक्षण भी हिंसा के अन्तर्गत आता है। अत: अहिंसाणुव्रती के लिए उनका त्याग करना भी आवश्यक बताया गया है। इस व्रत का पालन करने वाला, मन, वचन, काय और कृत कारित-अनुमोदना से त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता। बन्ध, बध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपान का निरोध इन पांच अतिचारों को भी वह वहीं करता। प्रश्नव्याकरणांग (१.१-३) में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। वैदिक संस्कृति में निर्दिष्ट यज्ञों का प्रचलन अधिक हुआ और हिंसा जोर पकड़ने लगी। फलत: श्रावक के लिए यह भी नियोजित किया जाना आवश्यक हो गया कि देवता के लिए, मन्त्र की सिद्धि के लिए, औषधि और भोजन के लिए वह कभी किसी जीव को नहीं मारेगा। इसी को श्रावक की “चर्या' कहा गया है। इस प्रकार का समय लगभग ७-८ वीं शती कहा जा सकता है। चर्चा तृ देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थ मेव वा। औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।।३ . सोमदेव ने तो बाद में उसे अहिंसा के स्वरूप में ही सम्मिलित कर दिया कि देवता के लिए, अतिथि के लिए, पितरों के लिए मन्त्रसिद्धि के लिए, औषधि के लिए और भय से सब प्राणियों की हिंसा न करने को “अहिंसाव्रत'. कहा है। देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयाय वा। न हिंस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तदव्रतम् ।। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और सागारधर्मामृत में अहिंसा की और भी गहराई से व्याख्या की गई है। इस समय तक जो जैसे भी प्रश्न चिह्न अहिंसा की साधना के सन्दर्भ में खड़े हुए, उनका यथोचित और यथाविधि उत्तर इन ग्रन्थों में देने का प्रयत्न किया गया है। रात्रिभोजन ___ अहिंसा के प्रसंग में रात्रिभोजन त्याग पर भी विचार किया गया है। मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रिभोजन वर्जित माना है। मूलाचार में “तेसिं चेव वदाणां रक्खटुं रादिभोयणविरत्ती' (५-९८) लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पांच व्रतों की रक्षा के निमित्त “रात्रिभोजनविरमण” का पालन किया जाना चाहिए। इसी में अहिंसा व्रत की १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. २. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२५. ३. आदिपुराण, ३९.१४७. ४. उपासकाध्ययन, ३२०.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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