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________________ (६५) अणुव्रत के पांच प्रकार हैं। इसके नामों के विषय में कुछ मतभेद हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्थूल त्रसकायवध परिहार, स्थूल मृषापरिहार, स्थूल सत्यपरिहार, स्थूल परपिम्म परिहार (परस्त्रीत्याग) तथा स्थूल परिग्रहारंभपरिमाण माना है। १ समन्तभद्र ने स्थूल प्राणतिपात व्युपरमण, स्थूल वितथव्याहार व्युपरमण, स्थूल स्तेयव्युपरमण, स्थूल कामव्युपरमण, (परदारनिवृत्ति और स्वदारसंतोष) और स्थूल मूर्च्छा व्युपरमण को अणुव्रत स्वीकार किया । २ रविषेण ने चतुर्थव्रत का नाम “परदारसमागमविरति’” और पांचवे का नाम “अनन्तगर्द्धाविरति" रखा । ३ जिनसेन ने चतुर्थव्रत का नाम “परस्त्रीसेवननिवृत्ति” तथा पांचवें का नाम " तृष्णाप्रकर्षनिवृत्ति" दिया। आशाधर ने चतुर्थव्रत को “स्वदारसंतोष व्रत" नाम दिया। इनमें नामों का अन्तर है, व्रतों का नहीं इन व्रतों के अतिचारों में भी कुछ मतभेद हैं । व्रत की शिथिलता को अतिचार कहते हैं। इनका सर्वप्रथम वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। उपासगदसाओं में भी यह परम्परा मिलती है। पर दोनों में पूर्वतर कौन है, कहा नहीं जा सकता। १. अहिंसाणुव्रत उवासगदसाओं में आनन्द ने महावीर के पास जाकर अहिंसाणुव्रत धारण किया। यहाँ प्राप्त उल्लेख से अहिंसाणुव्रत के लक्षण का आभास इस प्रकार होता है— यावज्जीवन मन, वचन, काय से स्थूल प्राणातिपादा से विरक्त रहना अहिंसाणुव्रत है— थूलंग पाणाइवायं पच्चक्खाई, जावज्जीवाए दुविह तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा कायया। उत्तरकालीन परिभाषायें इसी के आधार पर बनी । समन्तभद्र ने इसमें “संकल्प” शब्द और जोड़ दिया। परन्तु पूज्यपाद ने संकल्प और मन, वचन, काय, दोनों का उल्लेख नहीं किया । " जबकि अकलंक ने मन-वचन, काय का तो " त्रिधा" शब्द से उल्लेख कर दिया “संकल्प” को छोड़ दिया।' सोमदेव और अमृतचन्द्र सूरि१° ने तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर हिंसा का लक्षण कर अहिंसा का लक्षण स्पष्ट किया है। हिंसा का लक्षण करते हुए उमास्वामी ने कहा है— कषाय के वशीभूत २. चारित्रप्राभृत १३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३.६. आदिपुराण, १०६३. ३. पद्मचरित्र १४.१८४-५. ५. उवासगदसाओ, १.४३. ६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३.७. ७. सर्वार्थ. ७.२० की व्याख्या. ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ७.२०. ९. यास्मादप्रयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम्। सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता। उपासकाध्ययन, ३१८. १०. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४३. २. ४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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