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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४२) आचार्य वसुनन्दि विपत्तिग्रस्त होकर सिंहनाद करूँ तभी आप मेरी सहायता के लिये आना अन्यथा यही स्थित रहकर सीता की रक्षा करना। इसी बीच पुष्पक विमान में आरुढ़ होकर रावण भी खरदूषण की सहायतार्थ लंका से इधर आ रहा था। वह यहाँ सीता को बैठी देखकर उसके रूप पर मोहित हो गया और उसके हरण का उपाय सोचने लगा। उसने विद्या विशेष से ज्ञात करके कुछ दूर से सिंहनाद किया। इससे रामचन्द्र, लक्ष्मण को आपत्तिग्रस्त समझकर उसकी सहायतार्थ चले गये। इस प्रकार रावण अवसर पाकर सीता हर कर ले गया। इधर लक्ष्मण खरदूषण को मारकर युद्ध में विजय प्राप्त कर चुका था। वह अकस्मात् रामचन्द्र को इधर आते देखकर बहुत चिन्तित हुआ। उसने तुरन्त ही रामचन्द्र को वापिस जाने के लिये कहा। उन्हें वापिस पहुँचने पर वहाँ सीता दिखायी नहीं दी। इससे ये बहुत व्याकुल हुए। थोड़े समय के पश्चात् लक्ष्मण भी वहाँ आ पहुँचा। उस समय उनका परिचय सुग्रीव आदि विद्याधरों से हुआ। जिस किसी प्रकार से हनुमान लंका जा पहुँचा उसने वहाँ रावण के उद्यान में स्थित सीता को अत्यन्त व्याकुल देखकर सान्त्वना दी और शीघ्र ही वापिस आकर रामचन्द्र को समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। अन्त में युद्ध की तैयारी करके रामचन्द्र सेना सहित लंका.जा पहुँचे। उन्होंने सीता को वापिस देने के लिये रावण को बहुत समझाया, किन्तु वह सीता को वापिस करने के लिये तैयार नहीं हुआ। उसे इस प्रकार परस्त्री में आसक्त देखकर स्वयं उसका भाई विभीषण भी उससे रुष्ट होकर रामचन्द्र की सेवा में आ मिला। अन्त में दोनों में घमासान युद्ध हुआ जिसमें रावण के अनेक कुटुम्बी जन और स्वयं वह भी मारा गया। परस्त्री मोह से रावण की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। इसीलिये उसे दूसरे हितैषी जनों के प्रिय वचन भी अप्रिय ही प्रतीत हुए और अन्त में मरकर नरक गया।।१३०।। सप्तव्यसनों का उपसंहार करते है एदे' महाणुभावा दोसं एक्केक्क-विसण सेवाओ। पत्ता जो पुण सत्त वि सेवइ वणिज्जए किं सो।।१३१।। अन्वयार्थ – (एदे) ये, (महाणुभावा) महानुभाव, (एक्केक्क विसण सेवाओ) एक-एक व्यसन का सेवन करने से, (दोस) दुःख को, (पत्ता) प्राप्त हुए। (जो पुण) फिर जो, (सत्त वि) सातों ही (व्यसनों का), (सेवइ) सेवन करता है, (सो किं) उसके दुःख का क्या, (वणिज्जए) वर्णन किया जाए। . विशेषार्थ- आचार्य श्री यहां पर सप्त व्यसनों से प्राप्त फल का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जब महाराज युधिष्ठिर, महापराक्रमी यादव, राजा बक, महाबुद्धिमान श्रेष्ठीपुत्र चारुदत्त, चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त, ब्राह्मण श्रीभूति और विचक्षण बुद्धि वाला, १. प. एए. २. झ.ब.वसण. .
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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