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________________ (८३) २. इंगिनीमरण- इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक नियत देश में ही शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता। ३. प्रायोपगमन मरण- इसमें साधक आहारादि त्यागने के बाद शरीर की परिचर्या न स्वयं करता है और न दूसरों से कराता हैं वह तो मात्र सतत आत्मध्यान में लीन रहता है। इसे 'प्रायोग्यगमन' भी कहते हैं। प्रायोग्य का अर्थ है संस्थान या सहनन। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्य गमन है। विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। कहीं-कहीं इसके लिए “पादोपगमन' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है- अपने पांव के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है।' आचार्य शिवार्य ने समाधिमरण का विस्तार से वर्णन करते हुए मरण के पांच भेद किये हैं- बालमरण, बाल-बालमरण, पण्डितमरण, पण्डित-पण्डितमरण, और बाल-पण्डित मरण।. अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण, मिथ्या-दृष्टि के मरण को बाल-बालमरण, सम्यक्चारित्र के धारक मुनियों के मरण को पण्डित मरण, तीर्थंकर के निर्वाणगमन को पण्डित-पण्डितमरण और देशव्रती श्रावक के मरण को बाल पण्डितमरणं कहा जाता है। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीन भेद पण्डितमरण के हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। सल्लेखना अंथवा समाधिकरण जैसा कोई व्रत जैनेतर संस्कृति में प्राय: उपलब्ध नहीं है। जैनधर्म में तो निर्विकारी साधु अथवा श्रावक के मरण को मृत्यु महोत्व का रूप दिया गया है जबकि अन्यत्र कोई प्रसंग भी नहीं आता। वस्तुतः यह व्रत अन्तिम समय में आध्यात्मिक और परलौकिक क्षेत्र में अपनी आत्मा को विशुद्धतम बनाने के लिए एक बहुत सुन्दर साधन है। जैनधर्म की यह एक अनुपम देन है। वैदिक संस्कृति में प्रायोपवेशन, प्रायोपगमन जैसे कतिपय शब्द सल्लेखना के समानार्थक अवश्य मिलते हैं पर उनमें वह विशुद्धता तथा सूक्ष्मता नहीं दिखाई देती। अधिक सम्भव यह है कि उसपर जैन संस्कृति का प्रभाव पड़ा होगा। फिर भी इसे हम ‘भक्तप्रत्याख्यानमरण' कह सकते हैं। इस अवस्था में भी साधक के मन में किसी प्रकार की इहलोक, परलोक, जीवित, मरण और कामभोग की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। उसे पूर्ण निरासक्त और निष्कांक्ष होना आवश्यक है समभाव की प्राप्ति तभी हो सकेगी जब वह निर्मोही हो जायेगा। जैन संस्कृति की सल्लेखना में मुमुक्षु की मानसिक अवस्था का सुन्दर संयोजन होता है। बौद्ध संस्कृति में भी मुझे सल्लेखना से मिलता-जुलता कोई व्रत देखने नहीं मिला। १. वही, गा. २९; उपासकदसांगसूत्र, अध्याय १; उत्तराध्ययनटीका, २.४.१०२.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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