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________________ (८४) इस प्रकार श्रावक अवस्था मुनिव्रत की पूर्णावस्था हैं अत: यह स्वाभाविक है कि साधक अपनी पूर्णावस्था में उत्तरावस्था में निर्धारित आचार व्यवस्था को किसी सीमा तक पालन करने का प्रयत्न करे। इसे हम उसकी अभ्यास अवस्था कह सकते हैं। योगसाधना, परीषहों और उपसर्गों को सहन करना आदि कुछ ऐसे ही तत्त्व हैं जिनका अनुकरण श्रावक भी करता है। ऐसे तत्त्वों का विवेचन संयुक्त विवेचन समझना चाहिए। कुछ तत्त्वों का वर्णन हमने श्रावकाचार प्रकरण में कर दिया और कुछ को मुनि आचार प्रकरण में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। दोनों अवस्थाओं में व्रत लगभग वही हैं, . मात्र अन्तर है उनके परिपालन में हीनाधिकता अथवा मात्रा का। ८. गुणस्थान __जीव मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण अपने विशद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता। जिस क्रम से वह अपनी विशुद्ध अवस्थारूप परमपद को प्राप्त करने का. प्रयत्न करता है उसे ही गुणस्थान कहा जाता है। अर्थात् गुणस्थान आध्यात्मिक क्षेत्र . में चरमसीमा प्राप्त करने के लिए जीव के विकासात्मक सोपान हैं। ये चौदह होते हैं१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन, सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशसंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण संयत, ९. अनिवृत्तिकरणसंयत, १०. सूक्ष्मसांपरायसंयत, ११. उपशान्तकषाय संयत, १२. वीतरागछद्मस्थसंयत, १३. सयोगकेवली गुणस्थान, और १४. अयोगकेवली गुणस्थान। प्रारम्भिक अवस्था में गुणस्थान के स्थान के जीवसमास शब्द का प्रमेय होता था। उत्तरकाल में गुणात्मकाल की अभिव्यक्ति देने के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग होने लगा। १. मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आत्मस्वरूप की पहचान नहीं कर पाता, तबतक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेद्रिय तक के जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। संज्ञी अवस्था प्राप्त कर यदि वे पुरुषार्थ करे तो उस मिथ्यात्व से दूर हो सकते हैं। वह मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है - १. एकान्त मिथ्यात्व (पदार्थ नित्य अथवा अनित्य ही है, यह मान्यता), २. अज्ञान मिथ्यात्व (स्वर्ग, नरक आदि को न मानना), ३. विपरीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शनादि विपरीत मार्ग से भी मुक्ति-प्राप्ति को स्वीकार करना), ४. संशय मिथ्यात्व (किसी तत्त्व का निर्णय नहीं कर पाना), ५. विनय मिथ्यात्व .. १. पञ्चसंग्रह, १.३; गोमट्टसार जीवकाण्ड, ८.२९. २. मूलाचार, ११९५-९६. ३. रयणसार, १०६. ४. धवला, १.१.१.९.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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