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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (१७३) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ - (जीव ) (इच्छेवम्) इस प्रकार, (विसणस्स फलेण) व्यसन के फल से, (जदो) जब, (तिरियजोणीए) तिर्यंच योनि में, (बहुयं) बहुत प्रकार के, (आइ) इत्यादि, (दुक्खं) दुःखों को, (पाउणइ) पाता है, (तम्हा) तो (इसलिए), (वसणं) व्यसनों को, (परिवज्जए) छोड़ देना चाहिए। भावार्थ - ऊपर कहे हुए विविध प्रकारों से जब यह जीव व्यसनों के फल को तिर्यञ्च गति में भोगता है, पाता है, तब इन भयङ्कर दुःखों से बचने के लिए व्यसनों का त्याग कर देना चाहिए। व्यसनी जीवों को अवश्य ही यह महान दुःख भोगने पड़ते हैं । । १८२ ।। मनुष्यगति दुःख वर्णन व्यसनों से संयोग-वियोग के दुःख मणुयत्ते' वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहिं । इठ्ठाणिट्ठेसु सया वियोय- संयोयजं तिव्वं । । १८३ । । अन्वयार्थ - ( मणुयत्ते वि य) मनुष्य भव में भी, (जीवा) जीव, (बहुवियम्पेहिं) बहुत प्रकार, (इट्ठाणिट्ठेसु) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में, (वियोय-संयोयजं) वियोग-संयोगजनित, (तिव्वं) तीव्र, (दुक्ख) दुःखों को, (सया) हमेशा, (पावंति) पाते हैं। भावार्थ— व्यसनों के परिणामस्वरूप यह जीव मनुष्य भव में भी इष्ट अर्थात् अच्छे लगने वाले पदार्थों के वियोग (दूर) हो जाने से और अनिष्ट पदार्थों के संयोग (मेल) हो जाने से हमेशा दुःख ही पाते हैं; हमेशा दुःखी रहते हैं। मनुष्य का स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहते हैं - - मण्णंति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा । उब्वा य सब्बे तम्हा ते माणुसा भणिदा । । १४९ ।। अर्थ - जिस कारण से जो जीव नित्य 'मन्यन्ते' अर्थात् हेय उपादेय आदि के भेद को जानते हैं। अथवा 'मनसा निपुणाः' अर्थात् कला शिल्प आदि में कुशल होते हैं। अथवा 'मनसा उत्कटाः' अर्थात् अवधान आदि दृढ़ उपयोग के धारी हैं। अथवा मनु के वंशज हैं। इसलिए वे जीव सभी मनुष्य हैं, ऐसा आगम में कहा गया है ।। १८३ ।। १. झ. ब. मणुयत्तेण (मयुयत्तणे ? ).
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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