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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७२) आचार्य वसुनन्दि कान, पूंछ आदि मरोड़ देना अथवा घास आदि को रौंदना। दलन- छोटे-छोटे जीवों अथवा पेड़-पौधे, पुष्पों आदि के टुकड़े करना, पशुओं को आपस में रगड़ उत्पन्न कराना। प्रज्वलन- जलाना, विभिन्न प्रकार से जीवों को तपाना, धूप में बांध देना, छोड़ देना अथवा आग में जला देना। उत्कर्तन- बड़े अथवा छोटे पशुओं तथा अन्य जीवों के अंग अथवा उपांगों को काट देना अथवा शरीर से पृथक् कर देना। बन्धन- इच्छित स्थान में जाने से रोक देना अर्थात् खूटे आदि में रस्सी इस प्रकार बांध देना जिससे वह इष्ट देश (स्थान) में गमन न कर सके। भारारोपण- अत्यन्त लोभ के कारण अथवा अन्य कारणों से पशुओं पर भार (वजन) लादना। लांछन- शरीर में तेज गर्म शस्त्र अथवा अन्य किसी प्रकार से दाग (चिह्न) लगा देना। अन्न-पान निरोध- पशओं को चारा-पानी नहीं देना अथवा जीवों को उनके योग्य आहार-पानी नहीं देना। शीत-भयङ्कर ठण्ड में कीचड़, नदी के किनारे, नाली अथवा किसी अत्यन्त शीत स्थान में पड़े रहने से प्राप्त वेदना। उष्ण- भयङ्कर धूप, आग के पास, भट्टी के ऊपर-नीचे अथवा अन्य किसी अत्यन्त गर्म स्थान में प्राप्त वेदना। भूख- क्षुधा की अधिकता, असाता कर्म का तीव्र उदय अथवा भोजन न मिलने से भूख की वेदना। प्यास- पानी न मिलने से उत्पन्न वेदना। पिल्लों के वियोग जनित दुःख-पिल्लें (बच्चों) के खो जाने, किसी के द्वारा उठा ले जाने, मर जाने अथवा मार दिये जाने पर भी उन पशुओं को भयङ्कर दुःख होता है। बच्चों की माँ के मर जाने से भी उन्हें बहुत दुःख होता है, इत्यादि बहुत प्रकार उत्पन्न असंख्य दुःखों को तिर्यञ्च जीव (पशु) प्राप्त करके दुःखी होते हैं।। १८०-१८१ ।। व्यसनों से तिर्यंचगति इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए। विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ।। १८२।। २ । ध.प. जाईए. इतः पूर्वं झ.ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्येतेतिरिएहिं खज्जमाणो दुट्ठमणुस्सेहि हम्ममाणो वि। सव्वत्थ वि संतठ्ठो भयदुक्खं विसहदे भीम।।१।। अण्णोण्णं खज्जंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं। माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि।।२।। अर्थ-तिर्यंञ्चों के द्वारा खाया गया, दुष्ट शिकारी लोगों के द्वारा मारा गया और सब ओर से संत्रस्त होता हुआ भय-जनित, भयंकर दुःख को सहता है। तिर्यञ्च परस्पर में एक दूसरे को खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनि में माता भी अपने पुत्र को खा लेती हैं, वहाँ दूसरा. कौन रक्षा कर सकता है।।१-२।। - स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४१-४२ १.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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