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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (९४) आचार्य वसुनन्दि चाय सफेद विष है यदि चाय को सफेद विष मानते थे तो अन्य मद्यादि साक्षात् विष को वे क्या मानते होंगे इसे आप सहज ही समझ सकते है, परन्त अत्यन्त शर्म की बात है कि वर्तमान की स्वतन्त्र सरकार स्वयं मद्य फैक्ट्री खोलकर, मद्य दुकान प्रत्येक गांव में खोलकर भारत की जनता को विष पिलाने में सतत् प्रयत्नशील है। सरकार सोचती है कि इससे कछ आर्थिक लाभ भी होता है परन्त मढ़ सरकार यह नहीं जानती कि वह अर्थ किनके है और उस मद्य से जो शारीरिक, मानसिक क्षति होती है उस क्षति को पूर्ण करने के लिये सरकार को एवं जनता को अर्थ व्यय करना पड़ता है। इससे लाभ की अपेक्षा व्यय कितना अधिक है। स्वास्थ्य के लिये सरकार, अस्पताल खोलती है एवं रोगी बनाने के लिये जनता को मद्य पिलाती है। इसलिये भारत की स्वतन्त्र सरकार को तथा प्रादेशिक शासकों को मद्य के प्रचारक कुछ पूंजीपतियों को मद्य का दुःपरिणाम जानकर उसका सम्पूर्ण शासकीय क्षेत्र में कानून लगाकर निषेध करना चाहिये तथा प्रजा को भी प्रवृत्त होकर स्व-इच्छा से मद्य तथा अन्य अन्य नशीली चीज सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।।७९।। मधुदोष-वर्णन जह मज्जं तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइ बहुयं। असुइव्व शिंदणिज्जं वज्जेयव्वं पयत्तेण ।।८।। अन्वयार्थ- (जह मज्जं तह य मह) मद्य के समान मधु-सेवन भी, (णरस्स) मनुष्य के, (अइ बहुयं) अत्यधिक, (पावं जणयदि) पापों को उत्पन्न करता है। (असुइव्व) अशुचि के समान, (णिंदणिज्ज) निन्दनीय (मधु); (पयत्तेण) प्रयत्न से, (वज्जेयव्यं) छोड़ना चाहिये। भावार्थ- जिस प्रकार मद्यपान से मत्त होकर मनुष्य बहुत से कर्मों का बंध करता है उसी प्रकार मधु-सेवन से भी बहुत से कर्मों को उत्पन्न कर बंध करता है। मधु को मधु-मक्खियों का शौच (टट्टी) भी कहते है जो कि सत्य है। तो ऐसे शौच के समान अर्थात् अशुचि पूर्ण मधु जैसे पदार्थों का सेवन कौन करना चाहेगा अर्थात् कोई नहीं।।८०।। दह्ण असण मज्झे पडियं जह मच्छियं पि णिट्ठिवइ। , कह मच्छियंडयाणं णिज्जासं' णिग्विणो पिबइ ।। ८१।। अन्वयार्थ- (जह) जब, (असणमज्ञ) भोजन के मध्य में, (पडियं) पड़ी हुई, (मच्छियं पि दद्वण) मक्खी को भी देखकर, (णिट्ठिवइ) उगल देता है, (तो १. झ. नियसिंह निच्चोटनं निबोडनमिति। प.नि. पीलनम्। ध. निर्यासम्.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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