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वसुनन्दि-श्रावकाचार . (९५)
आचार्य वसुनन्दि फिर), (मच्छियंडयाणं) मक्खियों के अण्डो से, (णिज्जासं) निदर्यतापूर्वक निकाले हुए रस को, (णिग्घिणो) निर्घण, (कह) कैसे, (पिबई) पीता है।
भावार्थ- जब भोजन की थाली में पड़ी हुई मक्खी को देखकर मनुष्य मुंह का ग्रास (कौर) उगलकर भी कुल्लाकर मुख शुद्धि करता है, तब फिर ऐसा कौन दुर्बुद्धि होगा जो मक्खियों के असंख्यात् अण्डों से निर्दयतापूर्वक बनाई गई शहद को ग्रहण करेगा।। ८१।।
भो भो जिम्भिंदिय लुद्धयाणमच्छरेयं पलोएह। .. किमि मच्छिय णिज्जासं महुं पवित्तं भणंति जदो।। ८२।। · अन्वयार्थ- (भो- भो) भो-भो मनुष्यो, (जिब्भिंदिय-लुद्धयाणमच्छरेयं पलोएह) जिह्वेन्द्रिय-लुब्धक मनुष्यों के आश्चर्य को देखो (कि वे), (मच्छिय-णिज्जासं) मक्खियों के रस स्वरूप, (महुं) मधु को, (पवित्त) पवित्र, (जदो भणंति) जैसे कहते हैं?
भावार्थ- आचार्य यहाँ पर जनसामान्य से कह रहे हैं कि हे! हे! लोगों जिह्वा इन्द्रिय के लोलुपी मनुष्यों के आश्चर्य को देखो अथवा उन्हें आश्चर्य से देखों कि वे मक्खियों के रस को पवित्र कहते है और उसका सेवन करते हैं? ।। ८२ ।।
लोगे वि सुप्पसिद्धं बारह गामाइ जो डहइ अदओ।
तत्तो सो अहिययरो पाविट्ठो जो महुं हणइ ।। ८३।। • अन्वयार्थ- (लोगे वि सुप्पसिद्धं) लोक में भी यह अच्छी तरह प्रसिद्ध है (कि), (जो अदओ बारह गामाइ डहइ) जो अदयी मनुष्य बारह गांवों को जलाता है, (तत्तो अहिययरो) उससे भी अधिक, (पाविट्ठो) पापी, (सो) वह (है), (जो) जो, (महुं हणइ) मधु को तोड़ता है।
भावार्थ- ग्रन्थकार तत्कालीन प्रचलित लोक कहावत को उद्धरित करते हुए कहते है कि लोक में यह भलीभांति प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी पापी बारह गांवों को जलाता है उससे भी अधिक पापी वह है जो मधुमक्खियों के द्वारा बनाये गये मधु के छत्ते को तोड़ता है अथवा नष्ट करता है।
मधुमक्खियों के समूह के घात से उत्पन्न अपवित्र मधु की एक बूंद भी खाने वाला सात गांवों को जलाने में जितना पाप होता है, उससे भी अधिक पाप का बंध करता है।
१. झ.ध.मच्छेयर.
२.
सागार धर्मामृत, २/११, पृ. ५३.