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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (९६)
आचार्य वसुनन्दि) जो अवलेहइ णिच् णिरयं सो जाइ णत्थि संदेहो। एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महु तम्हा ।।८४।।
अन्वयार्थ- (जो अवलेहइ णिच्चं) जो हमेशा मधु को चाटता है, (सोणिरयं जाइ) वह नरक जाता है, (णत्थि संदेहो) इससे सन्देह नहीं है, (एवं फुडं णाऊण) ऐसा स्पष्ट रूप से जानकर, (महुं वज्जेयव्यं) मधु को छोड़ देना चाहिये।
___ अर्थ- जो मनुष्य महेशा ही मधु खाता है अथवा चाटता है वह निश्चित रूप. से नरक गति का पात्र बनता है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। ऐसा स्पष्ट रूप . से जानकर मधु का त्याग करना चाहिये।
व्याख्या- यद्यपि मधु भोजन का दैनिक अंग नहीं है, तथापि वैदिक संस्कृति में मधु अतिथि सत्कार का विशिष्ट अंग रहा है। मनुस्मृति में कहा है कि मघा नक्षत्र :
और त्रयोदशी होने पर मधु से मिली हुई कोई भी वस्तु दें तो पितर उससे तृप्त होते हैं। पितर यह अभिलाषा करते हैं कि हमारे कुल में कोई ऐसा उत्पन्न हो जो त्रयोदशी तिथि को मधु तथा घी से मिली हुई खीर से हमारा श्राद्ध करे (३/२७३-२७४)। किन्तु मधु हिंसा से प्राप्त होता है। हिंसा से प्राप्त वस्तु किसी को भी समर्पित की जाये सुख-शान्ति में सहयोगी नहीं हो सकती। आचार्य अमृत चन्द्र पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहते हैं -
स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ।।७० ।। मधुकलशमपिप्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके ।
भजति मूढधी को यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ।।६९।। अर्थात् यदि कोई छल से अथवा मधुमक्खियों के छत्ते से स्वयं टपके हुए मधु को प्राप्त कर भी ले तो भी उसमें रहने वाले जन्तुओं के घात से हिंसा अवश्य होती है। लोक में मधु की प्राप्ति प्राय: मधुमक्खियों की हिंसा से होती है। जो मूढबुद्धि मधु का सेवन करता है, वह निश्चित ही हिंसक है। आचार्य सोमदेव अपने उपासकाध्ययन में लिखते हैं -
उद्घान्तार्भकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धक जीवितम् ।।२९४-९५।।
१. आस्वादयति. . ३. प. जादि..
२. ४.
झ.नियं.. झ. नाऊण.