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गचा हा
शयन, परनिन्दा, परस्त्री सेवन, मद, नृत्यसभा, वाद्य की महफिल और व्यर्थ भटकना, आठ क्रोधज व्यसन हैं- चुगली करना, अति साहस करना, द्रोह करना, ईर्ष्या, असूया, अर्थदोष वाणी से दण्ड देना और कठोर वचन बोलना। यहाँ व्यसनों के पीछे काम और क्रोध की मूल भूमिका को पहचाना गया है।
बौद्धधर्म में भी व्यसनों को त्याज्य माना गया है। वहाँ व्यसन शब्द का प्रयोग भले ही न हुआ हो पर अकुशल कर्म में उनकी गणना अवश्य की गई है। .
जैनधर्म ने व्यसनों की संख्या सात मानी है- जुआ, (द्यूत) मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन। अन्य सारे व्यसन इन्हीं सप्तव्यसनों के आसपास मडराते हैं। इनको त्यागने का विधान मूलत: अष्टमूलगुणों के विधान में रखा गया हैं आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी ने इनका उल्लेख नहीं किया। समन्तभद्र ने सर्वप्रथम रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पद्य ६६) में इनका उल्लेख किया है- मद्य, मांस, मधु का त्याग और पंचाणुव्रतों का पालन। आचार्य रविषेण और जिनसेनं जैसे आचार्य मद्य-मांसादि से विरति होने की बात तो अवश्य करते हैं पर स्पष्टत: अष्टमूलगुणों का उल्लेख नहीं करते। अष्टमूलगुणों की एक अलग ही ऐतिहासिक परम्परा है।
लगता है, प्रारम्भ में नियम के अन्तर्गत सप्तव्यसन त्याग गर्भित रहा हैं बाद में जब अष्टमूल गुणों से काम नहीं चला तो, सप्तव्यसनों को पृथक् कर दिया गया। समन्तभद्र ने अष्टमूलगुणों का उल्लेख किया पर वहाँ पहली प्रतिमा वाले श्रावक के लिए मूलगुण पालन करने का विधान नहीं किया गया। जबकि स्वामी कार्तिकेय तथा वसुनन्दी ने पहली प्रतिमा वाले श्रावक के लिए पंचोदुम्बन्दि आदि के त्याग की बात स्पष्टत: कहीं है। शायद वसुनन्दि ने सर्वप्रथम पहली प्रतिमाधारी के लिए सप्तव्यसनों के त्याग का निर्धारण किया है
पंचुंबर सहियाइं सत्त वि विसणाहं जो विवज्जेइ।.
संमत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ।।५७- २०५
वसनन्दि ने श्रावकचर्या को और भी सरल बना दिया, यहाँ तक कि पंचाणुव्रतों को भी सम्मिलित नहीं किया। शायद उन्हें यह ध्यान होगा कि जैन शास्त्रानुसार त्याज्य वस्तु को सर्वप्रथम ज्ञपरिज्ञा से जानो और फिर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसे छोड़ो। ये व्यसन यथार्थतः अन्धकूपं के समान हैं। प्रारम्भ में वे छोटे लगते हैं पर बाद में वे हनुमान की पूंछ जैसे बढ़ते चले जाते हैं। इसलिए व्यक्ति को अप्रमत्त और जागरूक होकर जीवन पथ पर बढ़ना चाहिए। यह तत्कालीन सांस्कृतिक आवश्यकता थी।
प्राचीन जैनेतर आचार्यों ने भी व्यसन की इस स्थिति को भली-भाँति समझा था और उनसे कोसों दूर रहने का संदेश दिया था। उदाहरणार्थ, यास्क (लगभग ७ वीं