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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८९) आचार्य वसुनन्दि
इस सम्बन्ध में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - विधिनिषेधश्च कथश्चिदिष्टौ विवक्षया मुख्य गुणव्यवस्था। इति प्रणीति सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ।।
. स्वयंभूस्त्रोत, ५/१ ।। अर्थ- अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही किसी अपेक्षा से इष्ट हैं। वक्ता की इच्छा से उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है। इस तरह यह तत्त्व निरुपण की पद्धति आप सुमतिनाथ स्वामी की है। हे स्वामिन्! आपकी स्तुति करते हुए मुझे मति का उत्कर्ष होवे। .. आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में लिखते हैं -
एकेनाकर्षन्ती . श्लथयंती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मथान नेत्रमिव गोपी।।२२५।।
अर्थ- जिस प्रकार ग्वालिन दही को विलोती हुई एक रस्सी को अपनी ओर खींचती है दूसरी रस्सी को ढीला करती है। उसी तरह जिनेन्द्र देव की स्याद्वाद नीति वस्तु के स्वरूप को एक सम्यग्दर्शन से अपनी ओर खींचती है, दूसरे सम्यग्ज्ञान से ढीला करती है और अन्तिम सम्यक्चारित्र से परमात्म प्राप्ति की सिद्धि करती है। .. जैनागम में जहाँ कहीं भी परस्पर विरुद्ध अथवा अन्तर वाला कथन पाया जाये जानना चाहिये कि वहाँ इसी स्याद्वाद शैली का अवतरण किया गया है। .. मूलगुणों की संख्या में एकत्व और कथन में वैषम्य इस स्याद्वाद नीति का प्रस्तुत उदाहरण है। परमोदार चरित हमारे पूज्य आचायों ने तत्कालीन समाज में जिन कमियों/त्रुटियों को पाया अथवा निज मार्ग से पतित होते भोले प्राणियों को देखा तो उन्होंने उसे इस रूप में सम्बोधित किया कि समाज निज आचरणों को जाने और मानें। कभी भी किसी भी आचार्य की हठाग्रहता नहीं रही।
- निष्कर्षत: हम कह सकते है कि गाथा क्र० ५७ में आठ मूल गुणों का अथवा बारह स्थानों में से प्रथम स्थान का कथन किया गया है। यहां प्रस्तुत गाथा में शुद्ध रूप से प्रथम प्रतिमा (दर्शन प्रतिमा) का कथन किया गया है।।२०५।।
दर्शन प्रतिमा का उपसंहार एवं दंसणसावयठाणं पढमं समासओ भणियं। वय सावयगुण ठाणं एत्तो विदियं पवक्खामि।।२०६।।