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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८८) निसर्गाद्वाकुलाम्नायादायादास्ते गुणः स्फुटम्। तद्विना न व्रतं यावत् सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् । आचार्य वसुनन्दि एतावताविनाप्येषः श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको गूढो नैष्टिकोऽथवा ।। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चकः । नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही । । पञ्चाध्यायी, ३ / ७२३-७२३।। इस प्रकार कई विद्वान् आचार्यों की शिक्षा प्रणाली भिन्न भिन्न रही है। चूंकि जितने भी प्रकार से मूलगुणों का वर्णन किया गया है अगर उन सभी का तुलनात्मक अध्ययन करें तो निष्कर्ष एक ही आयेगा कि प्राणियों को पापों से बचना चाहिए और पुण्य कार्य करना चाहिए। अत: प्रत्येक पद्धति से कहे गये आठ मूलगुण हम सभी को श्रद्धा से स्वीकार होना चाहिए। शङ्का - सभी आचार्यों ने मूलगुणों की संख्या तो आठ गिनाई है, किन्तु नामों में वैषम्य है, क्यों ? • समाधान- भवभीरु दिगम्बराचार्य तीर्थङ्कर वाणी के प्रसारक और अनेकान्त प्रेमी होते हैं। वे स्वयं सतत् सावधान रहते है कि कहीं उनके वचनों से विषय प्ररूपणा में प्रस्खलन न हो जावे, इसके लिए वे सतत् सजग रहते हुए, तीर्थङ्करों और परम्पराचार्यों की वाणी का प्रचार एवं प्रसार करते है । अत: हमें आचार्यों की वाणी भी तीर्थङ्कर की वाणी के समान मानकर उस पर श्रद्धान करना चाहिए। हमारे कोई भी आचार्य एकान्तवादी अथवा हठाग्रही नहीं हुए। और इसलिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को देखते हुए उन्होंने सिद्धान्तों को सुरक्षित रखते हुए जन-जीवन हितार्थ आचरणगत सूत्रों का संवर्तन-संवर्द्धन और परिवर्तन भी किया। उन्होंने अपने काल में प्राणियों की जिन बुरी आदतों, खोटे विचारों अथवा कुत्सित आचरणों की ओर दृष्टि देखी उसे ही उन्होंने 'अष्टमूलगुण' के रूप में प्रस्तुत किया । आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी तक किसी भी आचार्य ने श्रावक के आठ मूलगुणों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया है। आठ मूलगुणों का सबसे प्राचीन प्रकरण सर्वश्रेष्ठ तार्किक आचार्य समन्तभद्र की कृतिरत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्राप्त होता है। आपके बाद कई आचार्यों ने अष्टमूलगुणों का प्ररूपण किया है। उपरोक्त अष्टमूलगुणों की कथन पद्धति देखने से बहुत विवक्षाओं से एक कथ की शैली अर्थात् स्याद्वाद की पुष्टि होती है। आचार्य उमास्वामी का सूत्र 'अर्पितानर्पित सिद्धेः'।। त०सू० ५/३२ ।। अर्थात् मुख्यतः और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पढ़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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