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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९०) आचार्य वसुनन्दि __ अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार से, (दंसणसावय पढमं ठाणं) दार्शनिक श्रावक का प्रथम स्थान, (समासओ) संक्षेप से, (भणिय) कहा, (एत्तो) इससे आगे, (वयसावयविदियं गुण ठाणं) व्रतिक श्रावक का दूसरा गुणस्थान, (पवक्खामि) कहता हूँ। भावार्थ- आचार्य यहाँ पर प्रथम प्रतिमा का उपसंसहार करते हुए कहते हैं कि मैं पाँच उदुम्बरफलों और सप्तव्यसनों के त्याग रूप प्रथम प्रतिमा स्थान का कथन करके अब आगे दूसरी प्रतिमा स्थान (गुणस्थान) का कथन करूँगा। यहाँ गुणस्थान से तात्पर्य द्वितीय प्रतिमान्तर्गत गुणों से है। . प्रस्तुत गाथा में यह स्पष्ट है कि उपरोक्त गाथा २०५ में दर्शन प्रतिमा का लक्षण. है। अब हम पुन: यह कह सकते है कि गाथा ५७ में आठ मूलगुणों का कथन मानना ही उचित लगता है।।२०६।। द्वितीय व्रत प्रतिमा वर्णन बारह व्रतों का निर्देश पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति पुण' तिण्णि। . सिक्खावदाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि।।२०७।। अन्वयार्थ– (विदिय ठाणम्मि) द्वितीय स्थान में, (पंचेव अणुव्वयाइं) पांचों ही अणुव्रत (तिण्णि-गुणव्वयाइं) तीन गुणव्रत, (पुण) पुन:, (चत्तारि सिक्खावदाणि) चार शिक्षाव्रत, (हवंति) होते है (ऐसा), (जाण) जानो।' अर्थ- द्वितीय-स्थान में पाँचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। व्याख्या- प्रथम स्थान में पांच उदुम्बरफल और सप्तव्यसनों का प्रधानतया त्याग होता है। द्वितीय स्थान अर्थात् दूसरी व्रत प्रतिमा में अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह-परमाणाणुव्रत ये पांच अणुव्रत, दिग्व्रत, १. ब. तद (तह?). २. पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधम् च गुण व्रतम्। शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेत् व्रतिको यतिः।।१३०।।गणभू. श्रा० ।। पंचधाणुव्रतं त्रेधा गुणव्रतमगारिणाम्। शिक्षाव्रतं चतुर्थेति गुणा: स्युद्वादशोत्तरे।।४।। – सा.ध./अ. चार य.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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