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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१९१) आचार्य वसुनन्दि देशव्रत और अनर्थ दण्ड त्याग व्रत ये तीन गुण व्रत, भोगविरति, परिभोगविरति, अतिथि संविभाग और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत शामिल हैं। (५+३+४=१२) इन सभी गुणों का योग, बारह होता है; कहने का तात्पर्यदूसरी प्रतिमा में प्रधानतया बारह व्रत धारण किये जाते हैं। आचार्य अमितगति ने लिखा है मद्यादिभ्यो विरतैर्व्रतानि कार्याणि भक्तितो भव्यैः । द्वादशतसा छेत्तुं शस्त्राणि सितानि भववृक्षम् || अमि० श्रा०६/१/४ ।। अर्थ — मद्य आदि के त्यागी भव्य को बारह व्रत पालने चाहिए। ये संसार वृक्ष को छेदने के लिए तीक्ष्ण शस्त्र हैं। - सागार धर्मामृत (४/४) की स्वोपज्ञ टीका में पं० आशाधर जी लिखते हैं। महाव्रतापेक्षया लघुव्रतमहिंसादि । अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते। क्वचित्तु रात्र्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते। यथाह चारित्रसारे— बधादसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम्। पञ्चधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम्।। गुणव्रतं गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थं व्रतं, दिग्विरत्यादीनामणुव्रतानुवृंहणार्थत्वात्। शिक्षाव्रतं शिक्षायैः अभ्यासायव्रतम् । देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । शिक्षा प्रधानं व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिकादेर्विशिष्टश्रुतज्ञानभावना परिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात्। अर्थ — महाव्रत की अपेक्षा लघु अहिंसादि व्रतों को अणुव्रत कहते हैं। हिंसा आदि पांचों पापों का सर्वदेश त्याग महाव्रत और एकदेश त्याग अणुव्रत है। बहुत आचार्यों के मत से अणुव्रत पांच माने गये है। कहीं पर रात्रि भोजन त्याग को भी अणुव्रत कहा है, जैसे चारित्र सार में कहते हैं- वध से असत्य से, चोरी से, काम सेवन से, ग्रन्थ (परिग्रह) से अलग होना (यह) पांच अणुव्रत हैं। रात्रि भुक्ति त्याग छठवां अणुव्रत है। › गुणव्रत—गुण का अर्थ है उपकार, जो व्रत अणुव्रतों का उपकार करते हैं, उनकी वृद्धि में सहायक होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते है । शिक्षाव्रत, जो व्रत शिक्षा अर्थात् अभ्यास के लिए होते हैं उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं क्योंकि इनका अभ्यास प्रतिदिन किया जाता है इसी कारण से गुणव्रतों से शिक्षाव्रतों में भेद हैं। क्योंकि गुण व्रत प्रायः जीवनपर्यन्त के लिए होते हैं । अथवा शिक्षाप्रधान व्रत को शिक्षाव्रत कहते हैं अर्थात् जो विशिष्ट श्रुतज्ञान रूप भावना से परिणत होते हैं वे ही शिक्षाव्रतों का निर्वाह कर सकते हैं । । २०७ ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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