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________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७२) आचार्य वसुनन्दि) समाधिमरण परम्परया मोक्ष का कारण बताते हुए आचार्य महावीर कीर्ति जी कहते हैं एक-त्रयादि-भवेषु-मोक्ष जननी संसार रोगापहां। श्री चिन्तामणिरादिसागर यति: चिन्त्यांसमाधिश्रितः।।प्रबोधाष्टकम् ७।। अर्थ- एक तीन आदि भवों में मोक्ष को देने वाली और संसार रूप रोग का अपहरण करने वाली, श्री-लक्ष्मी को प्रदान करने के लिए चिन्तामणि के समान समाधि का आचार्य आदिसागर यति (अंकलीकर) ने आश्रय लिया। . .. पद्मपुराण में कहा है भवानामेवमष्टानमन्तः कृत्वानुवर्तनम्। रत्नत्रयस्य निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते।।४/२०४।। : : अर्थ- जो गृहस्थ धर्म का पालन कर मरण करता है; ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालन कर अन्त में निर्ग्रन्थ हो सिद्धपद को प्राप्त होता है। दूसरी प्रतिमा का उपसंहार । एवं वारसभेयं वयठाणं वण्णियं मए विदियं । सामाइयं तइज्जं ठाणं संखेवओ वोच्छं ।। २७३।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (वारसभेय) बारह भेद वाले, (विदिय) दूसरे, (वयठाणं) व्रतस्थान का, (मए) मैंने, (वणिय) वर्णन किया, (अब), (सामाइयं तइज्ज) सामायिक नामक तृतीय, (ठाणे) स्थान को, (संखेवओ) संक्षेप से, (वोच्छं) कहूँगा। भावार्थ- इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थान का मैंने वर्णन किया। अब सामायिक नामक तीसरे स्थान को मैं संक्षेप से कहूँगा।।२५३।। सामायिक प्रतिमा सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप . होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णस्य सुइपएसे पुव्वमुहो उत्तरमुहो वा ।। २७४।। १. झ. करेइ.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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