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वसुनन्दि- श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि
(२७१)
सागार धर्मामृत में पं० आशाधर कहते हैं
कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात् प्रतीकार्यश्च रोगितः । उपकारं विपर्यस्यंस्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा ।। ६ ।।
अर्थ - साधु पुरुषों को यदि शरीर स्वस्थ हो तो अनुकूल आहार-विहार से उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि रोग हो जाय तो योग्य औषधि आदि से उस्का उपचार करना चाहिए। यदि शरीर स्वास्थ्य और आरोग्य के लिये किये गये उपकार को भूलकर विपरीत प्रवृत्ति करे अर्थात् स्वस्थ होकर अधर्म का साधन बने या चिकित्सा करने पर भी रोग बढ़ता जाये तो दुर्जन की तरह उसे त्याग देना चाहिए ।
इस संसारी जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और अनन्त - बार मरण किया, किन्तु कभी भी साम्य-भाव, समाधिपूर्वक मरण नहीं हो पाया। इस जीव ने शान्त परिणामों से संसार के सम्पूर्ण जीवों से न तो अन्तर भावों से क्षमा ही माँगी और न ही उन्हें क्षमा प्रदान की, अपितु बैर भावों को पुष्ट करता रहा, परिणामस्वरूप संसार में घूमता हुआ भयंकर दुःखों को पा रहा है। अगर यह जीव साम्य-भावों को धारण कर, 1. दिगम्बर मुद्रा प्राप्तकर निर्मल भावों से एक बार भी मरण कर ले तो संसार के भयंकर दुःखों से निश्चित ही छूट जायेगा ।
धर्म परीक्षा में कहा है - जो सुधी पुरुष कषाय निदान और मिथ्यात्व रहित होकर संन्यास विधि के धारणपूर्वक मरण करते हैं, वे मनुष्य देवलोक में सुखों को भोगकर २१ भव के भीतर मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । ( १९/९६)
आचार्य देवसेन कहते हैं—
जेसिं हुंति जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं ।
सत्तट्ठभवे गंतुं तेवि य पावंति णिव्वाणम् । । आ०सार १०९ ।।
अर्थ - निश्चय से जिन क्षपकों के चार प्रकार की जघन्य आराधनायें होती हैं, वे भी. सात-आठ भव व्यतीत कर निर्वाण को पाते हैं।
समाधिमरण का फल बताते हुए 'पाक्षिकादि प्रतिक्रमण' में कहा है- 'उक्कस्सेण दो तिण्ण भव गहणाणि, जहण्णे सत्तट्ठ भव- गहणाणि तदो सुमाणुसत्तादो-सुदेवत्तं, देवत्तादो-सुमाणुसत्तं, तदो साइहत्था, पच्छा णिगंथा होऊण, सिज्झंति, बुज्झंति, मुंचंति, परिणिव्वाणयंति, सव्वदुखाणमंतिं करेंति ।
इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट ही है ।