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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०१) आचार्य वसुनन्दि वनस्पतियों की कमी से आक्सीजन (प्राण वायु) का अभाव हुआ, उष्णता बढ़ी, जिससे वर्षा होना कम हो गया, वातावरण दूषित हो गया, रोगों की वृद्धि हुई, वनस्पति सम्पत्ति का ह्रास हुआ, वन्य पशुओं का अभाव होते चला गया। इन सब उपरोक्त दुर्घटनाओं का सरकार ने अनुभव करके पुन: वृक्षारोपण प्रारम्भ किया। यदि केवल निम्न श्रेणीय जीवों के घात से इतना विप्लव हो सकता है तो क्या अभी जो सरकार पञ्चेन्द्रिय जीव, गाय, बकरा, सूअर, मुर्गा, मछली आदि का निर्मम भावों से अरबों की तादाद से घात करा रही है उससे क्या सुफल मिल सकता है अर्थात् तीन काल में भी नहीं मिल सकता है। . जलाशय से मछली, मेढ़क आदि को मारने से पानी दूषित एवं कीड़ों से भर जाता हैं, क्योंकि मछली आदि दूषित अंश को खाकर पानी को स्वच्छ रखते हैं। अस्वच्छ पानी के सेवन से रोग होता है। पक्षियों को मारने से विषाक्त कीड़ों की बढ़वारी बहुत हो जाती है। सिद्धान्ततः सम्पूर्ण विश्व प्रकृति का शरीर है। वनस्पति, पशु-पक्षी, मनुष्य, जलवायु आदि प्रकृति के शरीर के अवयव स्वरूप है। जैसे एक मनुष्य के एक हाथ को कष्ट देंगे तो दूसरा हाथ यह नहीं सोंचेगा कि मुझे तो कष्ट दे नहीं रहा है तो मैं उसका विरोध क्यों करूँ। परन्तु शरीर एक होने से जिसको क्षति नहीं पहुँच रही है वह हाथ भी शरीर की रक्षा के लिये एवं स्वसुरक्षा के लिये विरोध करेगा, बदला लेगा। इसी प्रकार प्रकृति के कोई भी अवयव को यदि मनुष्य क्षति पहुँचाता है तो मनुष्य को जान लेना चाहिये कि सम्पूर्ण प्रकृति उसके विरोध में विप्लव करेगी और मनुष्य समाज को ध्वंस करके ही रहेगी। . केवल मांस खाना हिंसात्मक नहीं है, परन्त कोई प्रकार की चर्म की वस्तु जैसे चप्पल, वेग, वेल्ट, आदि। प्रसाधन की वस्तु जैसे- नख पालिस, लिपिस्टिक, सेम्पू, इत्र, सेण्ट, स्नो, पाउडर, मूल्यवान् साबुन आदि जीवों के शारीरिक अवयवों से बनता है इसलिये इनका प्रयोग करना भी हिंसात्मक है। - मद्य मांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थ यात्रा जपस्तपः ।। (महाभारत) मद्यपान, मांस भक्षण, रात्रि भोजन, जमीकन्द भक्षण (आलू, प्याज, मूली, गाजर, लहसुन आदि) जो करता है उसकी तीर्थयात्रा, जप, तप सब वृथा हो जाते हैं। यावंति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत! तावद्वर्ष सहस्त्राणि पच्यते पशुघातका।। शुक्रशोणित संभूतं यो मांसं खादते नरः । जलेन कुरुते शौचं हसंते तत्र देवताः।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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