________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२८
परिशिष्ट दिन समुद्रदत्त ने कहा कि नीली बेटी? बौद्ध साधू बहुत ज्ञानी होते हैं, उन्हें देने के लिये हमें भोजन बनाकर देओ। तदनन्तर नीली ने बौद्ध साधुओं को निमन्त्रित कर बुलाया
और उनकी एक-एक प्राणहिता- (पनहिया) जूती को अच्छी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसंस्कृत कर उन्हें खाने के लिए दे दिया। वे बौद्ध साधु भोजनकर जब जाने लगे तो उन्होंने पूछा कि हमारी जूतियाँ कहाँ है? नीली ने कहा कि आप ही अपने ज्ञान से जानिये, जहाँ वे स्थित है। यदि ज्ञान नहीं है तो वमन कीजिये, आपकी जूतियाँ आपके ही पेट में स्थित हैं। इस प्रकार वमन किये जाने पर उनमें जूतियों के टुकड़े दिखाई दिये। इस घटना से नीली के श्वसुर पक्ष के लोग बहुत रुष्ट हो गये।
तदनन्तर सागरदत्त की बहन ने क्रोधवश उसे परपुरुष के संसर्ग का झूठा दोष लगाया। जब इस दोष की प्रसिद्धि सब ओर फैल गई, तब नीली भगवान् जिनेन्द्र के आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्ग से खड़ी हो गई और उसने नियम ले लिया कि इस दोष से पार होने पर ही मेरी भोजन आदि में प्रवृत्ति होगी, अन्य प्रकार नहीं। तदनन्तर क्षोभ को प्राप्त हुई नगरदेवता ने आकर रात्रि में उससे कहा कि हे महासति! इस तरह प्राणत्याग मत करो, मैं राजा को तथा नगर के प्रधान. पुरुषों को स्वप्न देती हूँ कि नगर के सब प्रधान द्वार कीलित हो गये हैं, वे महापतिव्रता स्त्री के बाँये चरण के स्पर्श से खुलेंगे। वे प्रधान द्वार प्रात:काल आपके पैर का स्पर्श कर खुलेंगे, ऐसा कहकर वह नगरदेवता राजा आदि को वैसा स्वप्न दिखाकर तथा नगर के प्रधान द्वारों को बन्द कर बैठ गई। प्रात:काल नगर के प्रधान द्वारों को कीलित देखकर राजा आदि ने पूर्वोक्त स्वप्न का स्मरण कर नगर की सब स्त्रियों के पैरों से द्वारों की ताड़ना कराई। परन्तु किसी भी स्त्री के द्वारा एक भी प्रधान द्वार नहीं खुला। सब स्त्रियों के बाद नीली को भी वहाँ उठाकर ले जाया गया। उसके चरणों के स्पर्श से सभी प्रधान द्वार खुल गये। इस प्रकार नीली निर्दोष घोषित हुई और राजा आदि के द्वारा सम्मान को प्राप्त हुई। यह चतुर्थ अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई। ____ परिग्रहविरति अणुव्रत से जयकुमार पूजातिशय को प्राप्त हुआ था। उसकी कथा इस प्रकार है -
९. जयकुमार की कथा
करुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगर में कुरुवंशी राजा सोमप्रभ रहते थे। उनके जयकुमार नाम का पुत्र था। वह जयकुमार परिग्रहपरिमाणव्रत का धारी था तथा अपनी स्त्री सुलोचना से ही सम्बन्ध रखता था। एक समय, पूर्व विद्याधर के भवों की कथा के बाद जिन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना हिरण्यधर्मा और प्रभावती नामक विद्याधर युगल का रूप रखकर मेरु आदि पर वन्दना-भक्ति करके कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस