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________________ (७५) देकर दूसरे के घर में रख देना, (३) परिणाम से अधिक सोना-चांदी बाद में वापिस होने के भाव से दूसरे के घर रख देना, (४) व्रतभंग के भय से दो बर्तनों को मिलाकर एक मानना, और (५) गाय आदि के गर्भवती होने से मर्यादा का उल्लंघन न मानना। ये अतिचार हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर आधारित हैं। इनसे प्रदूषित पर्यावरण का अन्दाज लगाया जा सकता है। ६.१. व्रत प्रतिमा यह नैष्ठिक श्रावक की द्वितीय अवस्था है। इसमें वह पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन दृढ़तापूर्वक करता है। अणुव्रत का तात्पर्य है- एक देश का पालन। गृहस्थ पूर्वोक्त पंच पापों के एक देश का ही त्याग कर सकता है। जैसा पहले कह चुके हैं, अणुव्रत पांच प्रकार के होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। हिंसा चार प्रकार की होती है- उद्योगी, आरम्भी, विरोधी और संकल्पी। कृषि, शिल्प, व्यापार आदि उद्योगी हिंसा हैं। भोजन तैयार करना-कराना, वस्त्रादि स्वच्छ रखना, पशु पालना आदि आरम्भी हिंसा है। आत्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, सज्जनरक्षा आदि जैसे भी उसके कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों की रक्षा करने में भी हिंसा होती है। इसी को विरोधी हिंसा कहते हैं। गृहस्थ के लिए ये तीनों प्रकार की हिंसायें अपरिहार्य होती हैं। विवश होकर उसे उन हिंसाओं को करना पड़ता है। फिर भी अपने गार्हस्थिक कार्य करते समय वह अहिंसा को नहीं भूलता। ___ संकल्पी हिंसा (मरने की इच्छा से ही किसी प्राणी का मारना) का क्षेत्र बड़ा है। उंसमें मद्य, मांस, मधु का व्यापार करना, व्यभिचार करना, व्यभिचार द्वारा धनार्जन करना, न्यायमार्ग को त्यागकर पैसा कमाना, विश्वासघात करना, डाका डालना आदि जैसे जघन्य अपराध सम्मिलित हैं। गृहस्थ के लिए यह संकल्पी हिंसा और तज्जन्य अपराध अक्षम्य हैं। उद्योगी, आरम्भी और विरोधी हिंसा तो परिस्थितिवश तथा विवश होकर करनी पड़ती है पर संकल्पी हिंसा का सही रूप है जिससे उसे बचना नितान्त आवश्यक है। इसी प्रकार सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणाणुव्रत का परिपालन व्रत प्रतिमाधारी श्रावक के लिए आवश्यक हो जाता हैं १. ब्रह्मचर्याणुव्रत की परिभाषा समय-समय पर बदलती रही है। समन्तभद्र ने स्वदारसन्तोष तथा परदारगमनत्याग को ब्रह्मचर्याणुव्रत कहा है.पर वसुनन्दि ने अष्टमी आदि पर्वो के दिन स्त्री सेवन का त्याग करना तथा अनंगक्रीडा का सदा त्याग किये रहना ब्रह्मचर्याणुव्रत माना है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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