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________________ (७४) हजार ३७.१ है और १४.८ प्रतिशत मृत्युदर है। साक्षरता भी लगभग ४० प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पा रही है। जनसंख्या बढ़ने से मकान, कपड़ा, लकड़ी, सब्जियां आदि की आवश्यकता बढ़ जाती है, जंगलों की कटाई शुरू हो जाती है और प्रदूषण समस्या प्रारम्भ हो जाती है। इस तरह जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने में एक बाधक तत्त्व सिद्ध हो रहा है। जैनाचार्यों ने इस समस्या को पहले ही समझ लिया था और इसलिए “अपुत्रस्य गति नास्ति' जैसे सिद्धान्तों का पुरजोर खण्डन किया था इसी प्रसंग में उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रत का पाठ दिया और परिवार को सीमित रखने का आह्वान किया। इसका फल यह हुआ कि जैन परिवारों में जनसंख्या की वृद्धि अपेक्षाकृत कम होती रही है। आज भी ब्रह्मचर्यव्रत लेने की प्रथा हैं। इसे अध्यात्म से जोड़कर आचार्यों ने आन्दोलन में और भी वृद्धि कर दी। परिवार नियोजन के क्षेत्र में उनका यह उल्लेखनीय योगदान माना जा सकता है। ५. परिग्रहणपरिमाणाणुव्रत मूर्छा अर्थात् ममत्व भाव को परिग्रह कहा है। धन-सम्पत्ति आदि को भी इसी में सम्मिलित कर दिया गया। समन्तभद्र ने दोनों का समन्वय कर परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का लक्षण किया है। कुन्दकुन्दने इसी को “परिग्रहारम्भविरमण' संज्ञा दी है। इसमें धन धान्यादि बाह्य और राग-द्वेषादि आभ्यन्तर परिग्रहों से विरमण होने की बात कही है। यहाँ आवश्यक वस्तुओं के परिमाण करने की ओर संकेत है। ममत्व का जागरण वही होता है। अनावश्यक और असंभव वस्तु के परिमाण करने में व्रत का पूरी सीमा तक पालन नहीं हो पाता। उमास्वामी ने इस व्रत के पांच अतिचार बताये है। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दास-दासी भाण्ड और कुप्य (कपास) आदि की मर्यादा का अतिलोभ के कारण उल्लंघन करना। समन्तभद्र ने इनके स्थान पर अतिबाह्य, अतिसंग्रह, अतिविस्मय, अतिलोभ और अतिभारबहन को अतिचार बताया। आशाधर के समय तक परिस्थितियों में कुछ और परिवर्तन हुआ। फलत: उन्होंने कुछ भिन्न अतिचारों का उल्लेख किया- (१) अपने मकान और खेत के समीपवर्ती दूसरे के मकान और खेत को मिला लेना, (२) धन और धान्य को भविष्य में ग्रहण करने की दृष्टि से ब्याना १. तत्त्वार्थसूत्र, ७१७. २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६१. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२९; उपासकदशांग, अ. १., त. सू. में शायद भाण्ड छूट गया है। अन्यत्र सर्वत्र यह मिलता है। ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६२. ५. सागरधर्मामृत, ४.६४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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