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( वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०६)
आचार्य वसुनन्दि और साड़ी भी रखती हैं, साथ के ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारणियाँ उसकी व्यवस्था रखती हैं। पिछले दिन के वस्त्रों को धोकर यही सुखाती हैं। आर्यिका के केश लोंच तथा भोजन की विधि ऐलक के समान है और क्षुल्लिका के केशलोंच तथा आहार की व्यवस्था क्षुल्लक के समान है।।३११।।
श्रावकों को क्या नहीं करना चाहिए दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णत्थि अहियारो। . . . सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं ।।३१२।।
अन्वयार्थ- (दिणपडिम) दिनप्रतिमा, (वीरचरिया) वीरचर्या, (तियालजोगेसु) त्रिकालयोग में ध्यान करना, (सिद्धत) सिद्धान्त (और), (रहस्साण वि) रहस्य ग्रन्थों का भी, (अज्झयणं) अध्ययन, (अहियारो) अधिकार, (देसविरदाणं) देशव्रतियों को, (णत्थि) नहीं है।
अर्थ- दिन में प्रतिमा योग धारण करना अर्थात् नग्न होकर दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मुनि के सम्मान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मी में पर्वत के शिखर पर, बरसात में वृक्ष के नीचे और सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त-ग्रन्थ का अर्थात केवली, श्रुतकेवली-कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्नदशंपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन और रहस्य अर्थात, प्रायश्चित्त शास्त्रों का अध्ययन, इतने कार्यों में देशविरती श्रावकों का अधिकार नहीं है।
व्याख्या- सागारधर्मामृत (७/५०) विशेषार्थ में- सिद्धान्त का अर्थ आशाधर जी ने अपनी टीका में सूत्ररूप परमागम कहा है। जो गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली या अभिन्न दसपूर्वी के द्वारा कहा गया हो उसको सूत्र कहते हैं। वर्तमान में कोई ऐसा सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं है जो इनके द्वारा कहा गया हो। षट्खण्डागम, कसायपाहुड और महाबन्ध पूर्वो से सम्बद्ध होने से पूर्व सम्बन्धी ग्रन्थ हैं। पीछे आशाधर जी ने पाक्षिक के प्रकरण में (२/२१) नवीन जैनधर्म धरण करने वाले को भी द्वादशांग और चौदहपूर्वो के आश्रित उद्धारग्रन्थों को पढ़ने की प्रेरणा की है। वर्तमान उक्त सिद्धान्त ग्रन्थ उसी के अन्तर्गत है।।३१२।।
ग्यारहवीं प्रतिमा का उपसंहार उद्दिपिंडविरओ दुवियप्यो सावओ समासेण। एयारसम्मि ठाणे भणिओ सुत्ताणुसारेण।।३१३।।
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प.ब. विरयाणं.