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आसपास के वातावरण को भी दूषित कर देता है। वस्तुतः हम न हिन्दू है, न मुसलमान, न जैन हैं, न बौद्ध, न ईसाई हैं, न यहूदी। हम तो मानव पहले हैं और धार्मिक बाद में। व्यक्ति यदि सही इन्सान नहीं बन सका तो वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता। धर्म का मुखौटा भले ही वह कितना भी लगाये रखे। जैनधर्म धर्म के ऐसे ही सार्वजनीन मानव धर्म को प्रस्तुत करता है।
___ इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और इन्सानियत को बनाये रखने के लिए उसकी उपयोगिता को जानें। इन्सानियत को मारने वाली इन्सान में निहित कुप्रवृत्तियाँ और भौतिकवादी वासनायें हैं जो युद्ध और संघर्ष को जन्म देती हैं, व्यक्ति-व्यक्ति और राष्ट्र-राष्ट्र के बीच कटुता की अभेद्य दीवारें खड़ी कर देती हैं, धर्म के मात्र निवृत्तिमार्ग पर जोर देकर उसे निष्क्रियता का जामा पहनाना भी धर्म की वास्तविकता को न समझना है। धर्म तो वस्तुत: दुःख का मूल कारण रूप आसक्ति को दूर कर समाज के निर्माण और सर्वांगीण विकास में सहायक बनता है, संकीर्णता को दूर कर असाम्प्रदायिकता को प्रस्थापित करता है, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को नई दृष्टि देता है और समतामूलक समाज की रचना करने में और पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। इस दृष्टि से धर्म की शक्ति अपरिमित और अजेय है बशर्ते उसके वास्तविक स्वरूप को समझ लिया जाये। पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में सही धर्म विशेष सहयोगी होता है अत: पहले धर्म की परिभाषा को समझ लेना आवश्यक है। ३. धर्म की परिभाषा और सामाजिक सन्तुलन
धर्म की शताधिक परिभाषाओं का यदि वर्गीकरण किया जाये तो उन्हें साधारण तौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है- मूल्यात्मक, वर्णनात्मक और क्रियात्मक। ये तीनों प्रकार भी एक-दूसरे में प्रवेश करते दिखाई देते हैं। कोई एक तत्त्व पर जोर देता है तो कोई दूसरे तत्त्व को अधिक महत्त्व देता है। इसलिए कान्ट जैसे दार्शनिकों ने प्राथमिक स्तर पर उसके वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसमें मानवता को प्रस्थापित कर धर्म को ईश्वर-विश्वास से पृथक् कर दिया। कुन्दकुन्द, हरिभद्र, वसुनन्दा आदि जैनाचार्यों ने तो धर्म को इस रूप में बहुत पहले ही खड़ा कर दिया था और आध्यात्मिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया था।
यह सही है कि धर्म की सर्वमान्य परिभाषा करना सरल नहीं है। पर उसे किसी सीमा तक इतना तो लाया ही जा सकता है कि वह अधिक से अधिक सार्वजनीन बन सके। एकेश्वरवाद की कल्पना ने ईश्वरीय पुरुष को खड़ाकर धर्म के साथ अनेक किंवदन्तियों और पौराणिक कल्पनाओं को गढ़ा है और व्यक्ति तथा राष्ट्र को शोषित किया है धर्म के नाम पर जितने बेहूदे अत्याचार और युद्ध हुए हैं, यह सब उन अज्ञानियों