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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७०)
आचार्य वसुनन्दि) में, (अणंकालं) अनन्त काल, (अच्छइ) स्थित हो, (हिंडतो) घूमता रहता है।
भावार्थ- नरकों से निकलकर वह व्यसनी जीव पुन: तिर्यञ्चगति के दुःखों को प्राप्त होता है। वहाँ वह बहुत प्रकार के स्थावर कायिकों की लाखों अर्थात् बावन लाख योनियों में अनन्त काल तक जन्म-मरण करता हुआ घूमता रहताहै। एकेन्द्रिय जीवों को भी जलाये जाना, काटे जाना, गलाये जाना रौंदे जाना, छीले जाना आदि भयङ्कर दुःख भोगने पड़ते हैं।।१७७।।
स पर्याय की दुर्लभता कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो वियलिंदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ।। १७८।।
अन्वयार्थ- (तत्तो) उन स्थावरों में से, (कहमवि) किसी प्रकार से भी, (णिस्सरिऊणं) निकलकर, (वियलिदिएस) विकलेन्द्रियों में, (संभवइ) उत्पन्न होता है, (तत्यवि) वहां भी, (किलिस्समाणो) क्लेश उठाता हुआ, (कालमसंखेज्ज) असंख्यात काल तक (संसार में), (वसइ) बसता है। .
भावार्थ- उन स्थावर कायिक जीवों में से किसी भी प्रकार से निकलकर वह व्यसनी जीव विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होता है और वहाँ पर भी विकलेन्द्रियों अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीवों में भयङ्कर दुःखों को भोगता है। कभी वह कृमि होता है, कभी टट्टी का कीड़ा होता है, कभी सड़ी वस्तु में पैदा होता, कभी केंचुआ हो कुचला जाता है, कभी चींटी, खटमल, पिस्सू, भौरा, बरें, बिच्छू आदि होकर भयङ्कर दुःखों को पाता है। विकलेन्द्रिय होकर भी वह असंख्यात वर्षों तक छह लाख योनियों में दुःख प्राप्त करता है।।१७८।।
पञ्चेन्द्रिय पर्याय की दुर्लभता तो खिल्लविल्ल्जोएण कह वि पंचिंदिएसु उववण्णो। तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ।। १७९।।
अन्वयार्थ- (कह वि) किसी प्रकार से भी, (खिल्लविल्लजोएण) खिल्लविल्लयोग से, (पंचिंदिएस) पञ्चेन्द्रियों में, (उववण्णो) उत्पन्न हुआ, (तो),तो, (तत्थ वि) वहां भी, (असंखकालं) असंख्यात काल तक, (जोणिसहस्सेसु) हजारों योनियों में, (परिभमइ) परिभ्रमण करता है।
भावार्थ- यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योग से अर्थात् उत्कृष्ट भाग्य से विकलेन्द्रियों में से निकलकर पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ तो भी पञ्चेन्द्रि तिर्यञ्च जीवों