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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१६९) आचार्य वसुनन्दि) गणना उपमा है, वास्तव में छद्मस्थ जीव इन्हें गिनने में समर्थ नहीं हैं। जो राशि गणना के द्वारा न कही जा सके वह उपमा के द्वारा कही जाती है, उसे ही उपमान कहते हैं।।१७३-१७५।। व्यसन सेवन से नरकगति एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलेणिमो जीवो।।१७६।। अन्वयार्थ– (वसणस्स फलेण) व्यसन के फल से, (इमो जीवो) यह जीव, (एत्तियपमाण कालं) इतने (उपरोक्त) प्रमाण काल तक, (बहुपयारं) बहुत प्रकार के, (सारीरं माणसं तिव्वं दुक्खं सहेइ) शारीरिक, मानसिक तीव्र दुःखों को सहता है। अर्थ- व्यसन के फल से यह जीव उपरोक्त प्रमाणकाल तक बहुत प्रकार के शारीरिक, मानसिक तीव्र दुःखों को सहता है। व्याख्या- व्यसन सेवन के फल से यह जीव ऊपर कहे हुए सागरों प्रमाण काल तक शारीरिक, मानसिक और भी अनेक प्रकार के तीव्र दुःखों को सहन करता हुआ दुःखी रहता है। अत: नरकों के भयङ्कर दुःखों से बचने के लिए इन व्यसनों का त्याग करना चाहिए। शङ्का- व्यसन सैवियों के अलावा और कौन से जीव नरक जाते हैं? समाधान- तत्त्वार्थवृत्तिकार आचार्य श्रुतसागर लिखते हैं - - तेसु नरकेषु मद्यपायिनो-मांसभक्षका-मखारौ-प्राणिघातका-असत्यवादिनः परद्रव्यापहारकाः परस्त्री-लम्पटा: महालोभाभिभूताः रात्रिभोजिनः स्त्री-बाल-वृद्धऋषि-विश्वासघातका-जिनधर्मनिन्दका रौद्रध्यानाविष्टा इत्यादिपापकर्मानुष्ठातारः समुत्पद्यन्ते। . अर्थ- सरल है। इसका विशेष विस्तार आचार्य भास्करनन्दि की तत्त्वार्थवृत्ति में भी उपलब्ध है।। १७६।। तिर्यञ्चगति दुःख-वर्णन तिर्यञ्च स्थावरों के दुःख तिरियगईए वि तहा थावरकायेसु बहुपयारेसु। अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु।। १७७।। अन्वयार्थ- (तहा वि) फिर भी, (तिरियगईए) तिर्यश्चगति में, (बहुपयारेसु थावरकायेस) बहुत प्रकार के स्थावर कायिकों में, (जोणिलक्खेस) लाखों योनियों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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