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________________ (३८) से शान्ति बनाये रखना नितान्त अपेक्षित है। यह उसका प्रथम कर्त्तव्य है। आत्मिक उन्नति का यह पहला कदम है। ___पाक्षिक श्रावक हिंसा को दौड़ने के लिए सबसे पहले मद्य मांस-मधु और पंच उदुम्बर फलों को छोड दे। इसके बाद वह स्थूल हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह को छोड़कर पंच अणुव्रतों का पालन करे। यथार्थ-देव-शास्त्र-गुरु की पहिचान होना भी उसे आवश्यक है। यथार्थ देव वही हो सकता है जिसमें वीतरागता और निर्दोषता हो। यथार्थ शास्त्र में सम्यक् साधना के दिशाबोध का सामर्थ्य रहता है और यथार्थ देव और यथार्थ शास्त्र दोनों के गुण विद्यमान रहते हैं यथार्थ गुरु में। जिन और सरस्वती की उपासना, सत्संगति, त्याग, परोपकार, सेवा-सुश्रूषा, जन-कल्याण, निश्छलता, माधुर्य, स्वप्रशंसा और परनिन्दा त्याग आदि जैसे मानवीय गुणों का सम्यक् परिपालन . करना भी पाक्षिक श्रावक का प्राथमिक कर्तव्य है अष्टमूलगुण का परिपालन और सप्त. व्यसनों का त्याग भी उसे आवश्यक है इस दृष्टि से उसे सर्वथा अव्रती नहीं कहा जा सकता। दान, पूजा, शील, उपवास ये चार श्रावक-धर्म के लक्षण है। स्वाध्याय, संयम, . तप आदि क्रियाओं का पालन भी एक साधारण श्रावक़ का कर्तव्य माना जाता है। आचार के सन्दर्भ में पाक्षिक श्रावक को आठ मूल गुणों (पंचाणुव्रत, तथा मद्य-मांस-मधु त्याग) का पालन करना आवश्यक है, यह प्राचीनतम रूप रहा होगा। उत्तरकाल में जब धर्म-साधना की ओर झुकाव कम होने लगा तो आचार्यों ने पंचाणुव्रतों के स्थान पर पंचोदुम्बर, फलों (पीपल, बड़, उदुम्बर, मूलर और पिखलन) का त्याग निर्दिष्ट कर दिया। इन फलों में त्रस जीव रहते हैं। अत: उनका भक्षण विहित नहीं माना गया। इनके अतिरिक्त रात्रि-भोजन, त्याग, पानी छानकर पीना, देवदर्शन करना ये तीन कर्तव्य भी पाक्षिक श्रावक के दैनन्दिनी जीवन में जोड़ दिये गये हैं। उनकी दैनंदिनी में षट्कर्मों को भी आवश्यक कहा गया है- देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। ___इन मर्यादाओं और कर्तव्यों का पालन करने से एक साधारण व्यक्ति की आध्यात्मिक भूमिका का सुंदर गठन हो जाता है। वह अग्रिम साधना से कभी विचलित नहीं होता क्योंकि प्राथमिक साधना का वह भरपूर अभ्यास कर चुकता है। पाक्षिक-श्रावक के कर्तव्यों की ओर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने आपको किसी धर्मविशेष से सम्बद्ध नहीं करना चाहते, वे भी यदि उनका समुचित रूप से पालन करें तो मानवता किंवा पर्यावरण के संरक्षण और शान्तिप्रस्थापन करने में उनका महनीय योगदान होना स्वाभाविक है। जैनधर्म में पाक्षिक श्रावक की अहं भूमिका है अहिंसा का परिपालन। यह उक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है। १. सागारधर्मामृत, २.२.१६. २. लाटी संहिता, २.४६-४९.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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