________________
(३९)
३. श्रावकाचार और पर्यावरण ___ हर प्राणी को अपने अस्तित्व का खतरा है। अहिंसा और पर्यावरण उसे इस खतरे से बचा लेते हैं। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि अहिंसा पर्यावरण का समानार्थक शब्द है बिना अहिंसा के पर्यावरण की न तो सुरक्षा की जा सकती है और न इसे प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। जैनाचार्य इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने समाज को प्रदूषण से बचाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जिससे सामान्य जीव को कष्ट न पहुँचे। इतना ही नहीं, ऐसे नियम भी बना दिये हैं जिनसे न मानसिक रोग हों और न शारीरिक। सारे रोगों की जड़ है तृष्णा, लोभ, राग, मोह, द्वेष और आसक्ति। जैनधर्म इन सारे विकारों को जड़-मूल से नष्ट करने का मार्ग देता है और व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक ढंग से इसके लिए तैयार कर देता है। यह मार्ग अहिंसा और दया का है जो मानवता का अप्रतिम लक्षण है। मानवता ही पर्यावरण है।
वेदों में प्रतिपादित हिंसा निश्चित रूप से प्रदूषण का कारण रही होगी तभी जैनों ने उसका पुरजोर खण्डन किया। उन्होंने कहा-हिंसा भी स्थिति में धर्म का कारण नहीं हो सकती चाहे वह सामान्य हिंसा हो या यज्ञ और बलि रूप विशिष्ट हिंसा हो। मारा जाने वाला प्राणी हृदय द्रावक भाषा से, दीनता भरी आंखों से क्रन्दन करता है और फिर मूक पशुओं के मांस का दान करना केवल निर्दयता का ही द्योतक है। वेदोक्त विधि से पशुओं को मारने से यदि स्वर्ग-प्राप्ति है तो फिर नरक जाने के लिए कौन-सा मार्ग बचेगा? . मल्लिषेण ने खण्डन करते हुए यह भी कहा कि- जैनधर्म में आरोग्यबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु जैसे कथन व्यवहारतः कहे गये हैं। उनसे परिणाम विशुद्ध होते हैं। ऐसे कथनों को असत्य-अमृषा कहा जाता है जो १२ प्रकार की हैं- आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, प्रच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुकूलिका, अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संदेहकारिणी, व्याकृता और अव्याकृता। गोमट्टसार में उसके नौ भेद मिलते हैं (जीवकाण्ड २२४-२५)।
इसी प्रसंग में श्राद्ध क्रिया पर भी जैनाचार्य ने आक्षेप किया है। उन्होंने कहा है कि यदि अग्नि में आहूत मांसादि देवताओं के मुख में पहुंच सकते हैं तो होम किये हुए नीम के पत्ते, कडुवा तेल, मांड, धूमांश क्यों नहीं पहुंच सकते? फिर यदि संस्कारित
और पके धान्य से अतिथियों का सत्कार किया जा सकता है तो बैल, बकरे आदि का मांस भक्षण करना अविवेकता को ही द्योतित करता है।
श्राद्ध आदि से उत्पन्न पुण्य, परलोक सिधारे पितरों के पास कैसे पहुंच सकता
१. लाटी संहिता, चतुर्थ सर्ग.