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________________ (४२) छेदने से उसमें म्लानता देखी जाती हैं कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पादाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है, पृथ्वी, कृमि, पिपीलिका, भ्रमर आदि सभी जीव हैं जैनधर्म में निकाय के जीवों में सबसे कम त्रस जीव हैं, सजीवों से संख्यात गुण अग्निकायिक, अग्निकाय से विशेष अधिक पृथ्वी कायिक, पृथ्वीकाय से जलकायिक, जलकाय से वायु कायिक और वायु कायिक से अनन्तगुणे वनस्पति कायिक जीव हैं। वनस्पतिकायिक भी दो प्रकार के होते हैं व्यावहारिक और अव्यावहारिक जो निगोद अवस्था से निकलकर पृथ्वीकायिक आदि होकर पुनः निगोद में पहुँचे हैं वे व्यावहारिक हैं और जो निगोद में ही पड़े रहते हैं वे अव्यावहारिक हैं (स्या. म. पृ.' २५८-९)। जैनधर्म इन सभी जीवों को सुरक्षित रखने तथा उन्हें अभयदान देने का प्रावधान करता है अहिंसा-सिद्धान्त के माध्यम से। आचार्य जिनसेन ने महापुराण (२८.५; ३०.८३; २९.२०) में लिखा है कि युद्ध के समय वेग से दौड़ते हुए घोड़ों के खुरों से उड़ी हुई पृथ्वी की धूलि केवल शत्रुओं के ही तेज को नहीं, अपितु सूर्य के तेज को भी रोक देती है। इस धूलि का प्रभाव इतना अधिक पड़ता है कि लोगों का तेज नष्ट हो जाता है, भारी-भारी श्वासोच्छावास चलने लगते हैं, उनका अन्त:करण व्याकुल हो जाता है इतना अधिक कि मात्र मरना शेष बचता है। इसी प्रकार दिग्विजय का वर्णन करते हुए अभयदव ने भी जयन्तविजय (११.२, ४-५) में वायुमण्डल को प्रदूषित हो जाने की ओर ध्यान आकर्षित किया है। इस धूलि से समुद्र का स्थल बन जाना (जयन्त, १०.७, १०) अथवा समुद्र जल के सूख जाने (वही, ११.१४) की कल्पना भी प्रदूषण की बात कर रही है। प्राचीन काल में तुमुल, तोमर, पंचानन, शरम, आग्नेय, पयोधर, वायव्य, पवनाशन, पत्ररथेन्द्र, तिमिर, प्रद्योतन, त्रिपुरान्तक आदि अत्रों का प्रयोग भी वायुमण्डल को दूषित कर देता था (जयन्त. १४ वा सर्ग)। सेना के प्रयाण से उत्पन्न धूलि का असर समुद्र पर भी पड़ता था (वही, ११.४२, ४४, ६६)। यह वायुमण्डल का प्रदूषण था। सेना के प्रयाणकल में बजाये जाने वाले नगाड़ों के शब्द से आकाश भी शब्दायमान हो जाता था (महा. २८.१५; जयन्तविजय, ९.५६) यह तथ्य ध्वनि प्रदूषण की ओर संकेत करता है। यह शब्द समुद्र में निवास करने वाले विष्णु भी सहन नहीं कर सके। यह तो उसकी और भी भीषणता को व्यक्त करता है (जयन्त. १४.९.११) यह ध्वनि इतनी तीव्र होती थी कि रथ में जुते घोड़ों को रोकना कठिन हो जाता था। पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने का भी उपाय जैनाचार्यों ने निर्दिष्ट किया । है। उन्होंने काव्यों, पुराणों और कथाओं में नगर को स्वच्छ और सुन्दर बनाये रखने की अनेक योजनाओं पर प्रकाश डाला है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने कहा कि नगर के वातावरण को स्वच्छ और मनोरम बनाने में सरोवरों का भी बड़ा योगदान रहता था। (जयन्त, ८.३३-३४) नदियां भी प्रदूषित नहीं थीं (जयन्त, १८.१५), आकाश
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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