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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८१)
आचार्य वसुनन्दि जिन परिणामों से अथवा जिन क्रियाओं से अष्टकर्म नष्ट किये जाते हैं अर्थात आवर्त्त व शिरो त पूर्वक जो स्तुति वन्दन आदि किया जाता है वह कृतिकर्म कहलाता है अथवा जिन क्रियाओं को करता हुआ साधक कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं। __विधि- विज्ञप्ति देने के बाद नमस्कार, तीन आवर्त और एक शिरोनति करके णमोअरहंताणं आदि तथा चत्तारिमंगलं इत्यादि पाठ पढ़ते हुए अढाइज्ज-दीव-दो........ इत्यादि सूत्र पढ़ने के बाद तीन आवर्त एक शिरोनति करके सत्ताईस श्वाच्छोश्वास में एक कायोत्सर्ग करे अर्थात नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप करें। पश्चात् नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर थोस्सामि हं' इत्यादि चतुर्विंशति स्तव पढ़ें। स्तव पूर्ण कर सिद्ध, श्रुत, आचार्य, योगि, शांति, समाधि इत्यादि जो भी भक्ति इच्छित हो बोलें।
अष्टमी क्रिया- श्रावक व साधुओं को अष्टमी के दिन सिद्ध, श्रुत, चारित्र तथा शान्ति भक्ति करनी चाहिए। देखिये
अष्टम्यां सिद्धभक्त्याऽमा श्रुतचारित्र शान्तयः। भवन्ति भक्तीनूनं साधूनामपि सम्मति।।रत्नामाला ५३।। चामुण्डराय कहते हैं- अष्टम्यां सिद्ध-श्रुत-चारित्र-शान्तयः।
(चारित्रसार) . . पं० आशाधर भी इसी की पुष्टि करते हैं- 'स्यात-श्रुत-चारित्र, शान्ति
भवत्यष्टमी क्रिया। (अन० धर्मा० १/४७)। _. संस्कृत क्रियाकाण्डकार का मत इनसे कुछ भिन्न है, यथा
___सिद्ध-श्रुत-सु-चारित्र, चैत्य पञ्चगुरुस्तुतिः। - शान्ति भक्तिश्च षष्ठीयं क्रिया स्यादष्टमीतिथौ।।
अर्थ– अष्टमी के दिन सिद्ध-श्रुत-चारित्र-चैत्य-पंचगुरु एवं शान्ति भक्ति करनी चाहिए।
चतुर्दशी क्रिया- चतुर्दशी के दिन सिद्ध, श्रुत, पंचगुरु व शान्तिभक्तिपूर्वक नमन करना चाहिए व नित्य सामायिक देववंदना आदि के काल में भी चैत्य व पंचगुरु भक्ति करना चाहिए। यथा
चतुर्दश्यां तिथौ सिद्धश्चैत्य श्रुत-समन्विते पञ्च। गुरु शान्ति नुतीनित्यं चैत्यं च गुरुरपि।।रत्नमाला ५५।।