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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२८०) आचार्य वसुनन्दि णमंसित्ता) जिन-भगवान का नमस्कार कर, (तह) तथा, (जिण- सुय- साहूण) देव, शास्त्र, गुरु की, (दव्व - भावपुज्जं काऊण) द्रव्य-भाव पूजा करके, (उत्तविहाणेण ) पूर्वोक्त विधान से, (तहा) उसी प्रकार, (दिहं - रत्तिं) दिन-रात को, (पुणो वि) फिर भी, (गमिऊण) बिताकर, (पारणदिवसम्मि) पारणा के दिन, (पुणो पुव्वं व) पुनः पूर्व के समान, (पूयं काऊण) पूजन करके, (गंतूणणिययगेहं ) अपने घर जाकर, (च) और, (तत्थ) वहाँ, (अतिहिविभागं ) अतिथि विभाग को, (काऊण) करके, (जो) जो, (भुंजइ) भोजन करता है, (तस्स) उसके, (फुडं) निश्चय से, (उत्तम) उत्तम, (पोसहविहि) प्रोषधविधि, (होई) होती है। अर्थ- सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथि अर्थात् सत्पात्रों को भोजन कराकर बाद में वह स्वयं भोज्य सामग्री का भोजन करे भोजन के बाद मुंह हाथ-पैरों आदि को धोकर वहीं पर स्व-साक्षी में उपवास सम्बन्धी नियम कर लेवे। बाद में जिनेन्द्रभवम अर्थात् मन्दिर में जाकर तथा जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके, गुरु के सामने. वंदनापूर्वक क्रम से कृतिकर्म करके, गुरु की साक्षी से विधिपूर्वक चारों प्रकार के आहार के त्यागरूप उपवास को ग्रहण करके शास्त्र - वाचन, धर्मकथा पठन-पाठन अथवा सुनना-सुनाना, अनुप्रेक्षा चिन्तन, भजन-कीर्त्तन आदि के द्वारा उपयोग को शुभरूप रखकर दिवस व्यतीत करके तथा अपराह्निक (सायंकालीन) वंदना करके, रात्रि के समय अपनी शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, बाद में भूमि का प्रतिलेखन (संशोधन) करके और अपने शरीर प्रमाण बिस्तर (चटाई बगैरह) लगाकर रात्रि में कुछ समय तक जिनालय में अथवा अपने घर में सो लेना चाहिए। अगर शक्ति है तो सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग से बिताकर प्रात: काल वह स्थान छोड़ना चाहिए, तदुपरान्त वंदना विधि 'जिन भगवान को नमस्कार कर तथा देव, शास्त्र और गुरु की द्रव्य व भाव पूजन करके पूर्वोक्त विधान से उसी प्रकार सारा (सम्पूर्ण) दिन और रात फिर से बिताकर के दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासी को पुन: पूर्व के समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथि को दान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चय से उत्तम प्रोषध विधि होती है। व्याख्या सम्यक्त्वकौमुदी-ग्रन्थ में भी प्रोषध की विधि इसी प्रकार कही है, देखिए— “सप्तमी त्रयोदशी दिने एकभक्तं कृतोपवासं संगृह्याष्टमी चतुर्दशीदिने जिन भवने स्थातव्यम्। नवमीपञ्चदशीदिने प्रभाते जिन वन्दनादिकं कृत्वा निजग्रहं गत्वाऽऽत्म शक्त्या पात्रदानं दत्वाऽऽत्मना भुञ्जीत । तस्मिन्नेव पारणकदिने ह्येक भुक्तं कुर्वीत । एषा सा प्रोषधप्रतिमा। (पृ॰ १९१) शंका- कृतिकर्म किसे कहते है ? समाधान— 'पाप विनाशोपायः तत्कृतिकर्म' है अथवा जिन अक्षर समूहों से वा
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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