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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७९)
आचार्य वसुनन्दि) रयणि समयम्हि ठिच्चा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए। पडिलेहिऊण भूमिं अप्पपमाणेण संथारं ।। २८५।। दाऊण किंचि रत्तिं सइऊण जिणालए णियघरे वा। अहवा सयलं रत्तिं काउस्सग्गेण णेऊण।। २८६।। पच्चूसे अद्विता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता। तह दव्व-भावपुज्जं जिण-सुय-साहूण काऊण ।। २८७।। उत्तविहाणेण तहा दिण्हं रत्तिं पुणो वि गमिऊण। पारणदिवसम्मि. पुणो पूर्य काऊण पुव्वं व।। २८८।। गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थकाऊण। जो भुंजइ तस्स फुडं पोसहविहि उत्तमं होइ ।। २८९।।
अन्वयार्थ- (सत्तम्मि-तेरसि दिवसम्मि) सप्तम-त्रयोदशी के दिन, (अतिहिजण- भोयणावसाणम्मि) अतिथिजन के भोजन के अन्त में, (भुंजणिज्ज) भोज्यवस्तु को, (भोत्तूण) खाकर, (तत्थ वि) और वहीं पर, (मुहसुद्धि) मुखशुद्धि करके, (वयणं-कर-चरणे) मुख़ को (और) हाथ-पैरों को, (पक्खालिऊण) धोकर, (तत्थेव) वहाँ पर ही, (णियमिऊण) नियम-करके, (जिणं णमंसित्ता) जिन भगवान् को नमस्कार करके, (गुरुपुरओ) गुरु के सामने, (वंदणपुव्वं) वंदनापूर्वक, (कमेण) क्रम से, (किदियम्म) कृतिकर्म, (काऊण) करके, (गुरुसक्खियम्) गुरु की साक्षी से, (विहिणा) विधिपूर्वक, (चउव्विहं) चारों प्रकार का, (उववासं गहिऊण) उपवास को ग्रहण कर, (वायण) शास्त्र-वाचन, (कहा-सिक्खावण) कथा पठन-पाठन (और), (अणुपेहण-चिंतण) अनुप्रेक्षा-चिन्तन आदि के, (उवओगेहिं) उपयोग के द्वारा, (दिवससेसं णेऊण) दिवस व्यतीत करके, (अवराण्हियवंदणं-किच्चा) अपराह्निक वंदना करके, (रयणि समयम्हि) रात्रि के समय, (णिययसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार, (काउस्सग्गेण ठिच्चा) कायोत्सर्ग से स्थित होकर, (भूमि पडिलेहिऊण) भूमिका प्रतिलेखन करके, (और) (अप्पपाणं) अपने शरीर प्रमाण, (संथारं दाऊण) बिस्तर लगाकर, (रत्ति) रात्रि में, (किंचि) कुछ समय तक, (जिणालये वा णियघरे) जिनालय अथवा निजघर में, (सइऊण) सोकर, (अहवा) अथवा, (सयलं रत्ति) सारी रात्रि, (काउस्सग्गेण णेऊण) कायोत्सर्ग से बिताकर, (पच्चूसे उद्वित्ता) प्रत्यूष में उठकर, (वंदणविहिणा) वंदना विधि से, (जिणं १. ध झ.ब. प्रतिषु ‘णाऊण' इति पाठ:. २. दियहं.