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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४४) आचार्य वसुनन्दि
नरकगति दुःख वर्णन
व्यसन सेवी नरकों में उत्पन्न होता है अइ-णिदुर-फरुसाइं पूइ-रुहिराई अइदुगंधाई। असुहावहाई णिच्वं णिरएसुप्पत्तिठाणाई ।। १३५।। .. तो तेसु समुप्पण्णो आहारेऊण पोग्गले असुहे। ... .. अंतोमुहुत्त काले पज्जत्तीओ समाणेइ ।। १३६।। .'
(जुअलं) अन्वयार्थ– (णिरएसुप्पत्तिठाणाइं) नरकों में उत्पत्ति के स्थान, (अइणिहर फरुसाइं) अत्यन्त निष्ठुर स्पर्श वाले, (पूइ-रुहिराइं) पीप-रुधिर आदि, (अइंदुगंधाई) अति दुर्गन्धित, (असुहा) अशुभ पदार्थ, (णिच्चं वहाई) नित्य बहते रहते हैं। (तेसु) उनमें, (समुप्पण्णो) उत्पन्न होकर, (तो) वह जीव, (असुहे पोग्गले) अशुभ पुद्गलों को, (आहारेऊण) ग्रहण करके, (अंतोमुहुत्तकाले) अन्तर्मुहुर्त काल में, (पज्जत्तीओ) पर्याप्तियों को, (समाणेइ) सम्पन्न कर लेता है।
अर्थ- नरकों में नारकियों की उत्पत्ति के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले, पीप-रुधिर आदि अत्यन्त दुर्गन्धित पदार्थों को नित्य बहाने वाले हैं। उनमें उत्पन्न होने वाला जीव अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके अन्तर्मुहूर्त काल में पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है।
विशेषार्थ- नरकों में नारकियों के उत्पत्ति के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्श वाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उल्टे मुंह गिरकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके अन्तर्मुहुर्त काल में पर्याप्तियों को सम्पन्न कर लेता है। यह ध्यान रखना चाहिये कि नरकों में वे ही जीव जन्म लेते हैं जिन्होंने नरकाय का बंध किया है और ऐसे जीव नियम से पर्याप्तियाँ पूर्ण कर अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण अङ्गोपाङ्गों से युक्त पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं अर्थात् वहां बालक और वृद्ध आदि नहीं होते।
नारकियों के उत्पत्ति स्थान प्रारम्भ की तीन पृथ्वियों में नारकियों के उत्पत्ति स्थान कुछ तो ऊँट के आकार के हैं, कुछ कुम्भी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गल, मृदंग और नाड़ी के आकार के हैं। चौथी और पांचवी पृथिवी में नारकियों के जन्मस्थान अनेक तो गौ के आकार के है, अनेक हाथी, घोड़ा आदि पशुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुर के समान हैं। अन्तिम दो भूमियों में कितने ही उत्पत्ति स्थान खेत के १. ब. असुहो.