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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (९८)
आचार्य वसुनन्दि) जीव आयु की समाप्ति से मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जब शहद को निकाला जाएगा न जाने कितने जीव प्रत्यक्ष रूप में मारे जाएंगे? अतएव मधु भक्षण करने वाला जीव मांस भक्षी भी है। आगे और भी विश्लेषण करते हुए आचार्य देव ने लिखा है कि -
भक्षणे भवति हिंसा नित्यमुदभवन्ति यज्जीवराशी । स्पर्शनेऽपि मृयन्ते सूक्ष्म निगोद रसज देहिनः ।।२९।। . . .
अगदेऽपि न सेवितव्यः हिंसा भवति सेवनकाले ।
भावे विकृता खलु प्रदाता सुखमाभाति कदा ।।३०।। अर्थात् इस शहद में हमेशा सूक्ष्म निगोद शरीर ही जिसका रस है, ऐसे निगोदिया जीव उत्पन्न होते रहते हैं। वे जीव मात्र स्पर्श से भी मरण को प्राप्त होते है। औषधि के रूप में भी इसका सेवन अनुचित है। इसके सेवन से हिंसा होती है। भावों में विकृति आती है और किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता। सज्जनों को यह जान लेना चाहिए कि शहद की एक बूंद खाने में ७ गांव जलाने के बराबर पाप लगता है, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। अतएव किसी भी अवस्था में मधु भक्ष्य नहीं है। .
कई लोग (अन्यमतावलम्बी) पूजादिक कार्यों में मधु को इष्ट मानते हैं। आचार्य भगवन्त उन्हें समझाते है कि हिंसाजनक और अशुद्ध पदार्थों से उत्पन्न मधु पवित्र कार्यों में ग्राह्य कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता। ___आयुर्वेदिक औषधियों में भी अल्पज्ञानी वैद्यों के द्वारा मधु के प्रयोग का उपदेश दिया जा रहा है, परन्तु सद्गृहस्थ को औषधि के रूप में भी मधुभक्षण कदापि नहीं करना चाहिये।।८४।।
मांस दोष-वर्णन मंसं अमेज्झ सरिसं किमिकुलभरियं दुगंधबीभत्छ । पाएण छिवेउं जं ण तीरए तं कहं भोत्तुं ।। ८५।।
अन्वयार्थ- (मंसं अमेज्झ सरिस) मांस विष्टा के समान है, (किमिकुलभरियं) कृमियों के समूह से भरा हुआ है, (दुगंधबीभच्छं) दुर्गन्धियुक्त और बीभत्स है, (ज) जो, (पारण छिवे ण) पांव से छूने योग्य नहीं है, (तीरए तं कहं भोत्तुं) तो फिर वह खाने योग्य कैसे हो सकता है?
अर्थ- मांस अमेध्य अर्थात् टट्टी के समान है, छोटे-छोटे कीड़ों के समूह से भरा हुआ है, दुर्गन्धि से युक्त, बीभत्स अर्थात् दिखने में भयानक और पैर से छूने के