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________________ (४६) की चर्बी से होता है। शैम्पू, आफ्टर शेवलोशन, यूडी कोलोन, लोशन आदि सामान . भी खरगोश, गर्भवती घोड़ी, चूहे, बन्दर आदि जैसे मूक पशुओं को मारकर तैयार किया जाता है। तैयार करने की यह प्रक्रिया बड़ी हिंसक होती है। चर्बी का उपयोग तो आजकल आईसक्रीम, टूथपेस्ट, मसाले आदि में बहुत होने लगा है। इन सभी के निर्माण से पर्यावरण तो रक्तरंजित होता ही है, साथ ही व्यक्तित्व के निर्माण में भी अप्रत्यक्षरूप से हिंसक भाव पनपने लगते हैं जो सामाजिक संघर्ष के कारण बनते हैं। ४. अनेकान्तवाद और आचरण अहिंसा के सन्दर्भ में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का भी उल्लेख आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है, विधि - निषेधात्मक होता ' है जिसे समन्वित रूप में न व्याकृत किया जा सकता है और न चिन्तन ही सम्भव है। हम एक समय एक पक्ष को ही कह पाते हैं। कतिपय चिन्तक एक ही पक्ष को सही मानते हैं और उसी को मनाने का आग्रह भी करते हैं । यही आग्रह दुराग्रह संघर्ष और मनमुटाव का कारण बन जाता है। यहीं से अशान्ति और युद्ध शुरु होता है। जैनदर्शन ने इस तथ्य पर बड़ी गहराई से विचार किया। उसके अनुसार किसी दृष्टि या पक्ष को पूर्णत: अस्वीकार नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति या चिन्तन करते समय भले ही हम एक पक्ष को प्रस्तुत करें पर दूसरा पक्ष भी हमारी दृष्टि से ओझल नहीं रहना चाहिए। तभी दूसरे की दृष्टि का समादर भी किया जा सकेगा। इस पृष्ठभूमि में जैन दर्शन ने अभिव्यक्ति में स्याद्वाद और चिन्तन में अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया । यहाँ 'स्यात्' अव्यय कथञ्चित् का द्योतकहै, सन्देह अथवा संशय का नहीं । निश्चयनय और व्यवहारनय, द्रव्य, क्षेत्र, तत्काल, भाव रूप चातुष्टय, नय और निक्षेप आदि सभी सिद्धान्त इसी से सम्बद्ध हैं । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव इसी के अंग हैं। सामाजिक पर्यावरण एकान्तिक दृष्टि के प्रति घनघोर लगाव से दूषित होता है। समुचित रूप से विचार करने के लिए और अहिंसक रूप से उसे अभिव्यक्त करने के लिए अनेकान्तवादी और स्याद्वादी होना नितान्त आवश्यक है। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा। “परस्परोपग्रहो जीवानाम् " का उद्घोष आचरण और पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने का सुन्दरतम् अहिंसक साधन है। ५. मद्य, मधु, मांसादि सप्त व्यसन और श्रावकधर्म श्रावक सद्धर्म में प्रतिष्ठित होने का प्रथम सोपान है जो एक लम्बी साधना के बाद प्राप्त होता है। सहज स्वाभाविक ऐन्द्रियक विषय वासनाओं से चपल मन को हटाकर उसे पारमार्थिक साधना में लगाना सरल नहीं होता। इस साधनापथ को पाने के बाद
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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