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विसुनन्दि-श्रावकाचार
(१३०)
आचार्य वसुनन्दि
की प्रभो माफ कीजिये यह मांस मनुष्य का है। आज कहीं से भी जब मुझे पशु का मांस न मिल सका तब मैंने इसे ही चतुराई से पकाकर आपको खिलाया है। ___ यह सुनकर राजा बोला कि प्रिय यह मांस मुझे बहुत ही अच्छा मालूम हुआ है और इससे मुझे तृप्ति हुई है इसलिये अब से तुम मुझे मनुष्य का ही मांस खिलाया करो। राजा की इतनी सम्मति पाकर वह रसोइया और भी निडर हो गया और अब वह हमेशा मनुष्य के मांस की खोज में गली-कूचों में जाकर नगर के बच्चों को मिठाई
आदि बाँटने लगा। मिठाई लेकर सब बच्चों के चले जाने पर जो बच्चा पीछे रह जाता उसे पकड़ कर वह उसका गला घोट देता और उसका मांस राजा को खिला देता, ऐसा दुष्कृत्य वह रोज करने लगा।
उधर धीरे-धीरे जब नगर के बच्चे प्रतिदिन कम होने लगे तब सारे नगर में खलबली मच गई और लोगों ने छुप-छुप कर बच्चों के घातक को देखना-खोजना आरम्भ कर दिया। इसके थोड़े ही दिनों में वह रसोइया पकड़ा गया। लोगों के पछने पर उसने साफ-साफ कह दिया कि मेरा तनिक-सा भी इस दुष्कृत्य में अपराध नहीं है। किन्तु मुझसे राजा ने जैसा करवाया वैसा ही मैंने किया। इस पर सब लोगों की सम्मति से राजा बक राजगद्दी पर से उतार दिया गया। इसके बाद बक वन में रहकर मनुष्यों को मारकर खाने लगा। धीरे-धीरे जब उसने नगर के बहुत से मनुष्यों को मार खाया तब नगर के लोगों ने मिलकर विचार कर यह निश्चय किया कि इसके लिये बारी-बारी से हर रोज एक मनुष्य खाने को देना चाहिये। बस इसी नियम के अनुसार अपनी-अपनी बारी पर सब लोगों ने उसे घर-घर से एक-एक मनुष्य प्रतिदिन ख़ाने को दिया और धीरे-धीरे आज बारह वर्ष ऐसे ही बीत गये पाप योग से आज मेरे प्यारे बच्चे की बारी है और इसी से दुःखी होकर मैं रो रही है। देवी मेरे रोने का दूसरा और कोई निमित्त नहीं है। नगर के लोग आज ही एक गाड़ी में मिठाई आदि भर कर और उसके बीच में मेरे प्यारे पुत्र को बैठाकर उस अधर्मी को भेंट में देंगे तथा साथ में एक भैसा भी देंगे। माता मेरा यह एक ही तो प्यारा आँखों का तारा सर्वस्व पुत्र है और यही आज काल के गाल में पहुँचाया जा रहा है। इसके बिना हाय! अब मैं क्या करूँगी और कैसे अपना जीवन बिताऊँगी? पुत्र के वियोग का चित्र मेरे आँखों के सामने खिंच रहा है और वह मेरी छाती को.चीरे डालता है। हृदय में वज्र के जैसी चोट कर रहा है। बताइए अब मैं कैसे और किसके भरोसे धीरज धरूँ। मुझे तो कोई उपाय ही नहीं सूझ पड़ता है।
यह सुनकर कुन्ती का हृदय दया से भीग गया। वह मिष्टभाषिणी उसके लिए सुख का उपाय सोचती हुई उसे शान्ति देकर बोली कि वणिग्वधू तुम डरो मत। सबेरा होने दो। तुम्हारे पुत्र की बारी आने पर मैं उसकी रक्षा का उपाय करुंगी। सुनो मैं उस भूत की बलि के लिये अपना अतीव रूप-शाली पुत्र भेज दूंगी। तुम्हारा पुत्र आनन्द