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वसुनन्दि- श्रावकाचार
(१२६)
आचार्य वसुनन्दि
इसका त्याग करना चाहिए। गाथा में "परयारा" और "परमहिला" इन दो शब्दों को ग्रहण किया गया है जिनका अर्थ क्रमशः "परिगृहीता स्त्री” अर्थात् जिस स्त्री का कोई स्वामी है, और “अपरिगृहीता स्त्री" जिस स्त्री का कोई स्वामी अर्थात् पति नहीं है; जानना चाहिए तथा इन दोनों प्रकार की स्त्रियों का मन, वचन, काय से त्याग करना चाहिये।
जो पापी परस्त्री का सेवन करते है, वे लोक में निन्दा के पात्र तो होते ही है, दण्ड भुगतते भी है कदाचित् वह उस स्त्री के पति के द्वारा मारे भी जाते है; इस प्रकारपरस्त्री सेवी अपने प्राणों तक से हाथ धो डालता है।
सागार धर्मामृत में पं० आशाधर ने परस्त्री सेवन का त्याग करने के साथ और किन-किन दोषों को छोड़ना चाहिए इस सम्बन्ध में कहा है
कन्यादूषणान्धर्व विवाहादि विवर्जयेत् ।
परस्त्री व्यसन त्याग व्रतशुद्धि विधित्सया ।। २३ ।।
अर्थात् परस्त्री के त्यागी को परस्त्री त्याग व्यसनं को निर्दोष करने की इच्छा से कन्यादूषण अर्थात् कुमारी कन्या के साथ रमण और गान्धर्व विवाह अर्थात् बिना परिजनों की अनुमति के विवाह नहीं करना चाहिये ।
खोटे परिमाणों से सहित होकर अपनी अथवा दूसरों की मां- बहिन-बेटी का स्पर्श करना भी महापाप है। इसलिए स्वदार सन्तोष व्रत धारण कर अपनी स्त्री को छोड़कर बाकी सभी स्त्रियों को माँ-बहिन और बेटी की दृष्टि से देखना चाहिए। जो उम्र में बड़ी हों वह माँ, जो उम्र में बराबर हों वह बहिन और जो उम्र में छोटी हों उन स्त्रियों को बेटी तुल्य मानना चाहिए। खोटे परिणामों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि खोटे परिणामों का फल भी खोटा ही होता है ।। १२४ । ।
सप्तव्यसनों से प्रसिद्ध महानुभवों के दृष्टान्त
जुआ में प्रसिद्ध युधिष्ठिर
जुहिट्ठिरो' राया । । १२५ ।।
रज्जब्मंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो । पत्तो तहावमाणं जूएण अन्वयार्थ - (जूएण) जुआ से, (जुहिट्ठिरो राया ) युधिष्ठिर राजा, (रज्जमंसं) राज्य भ्रष्ट हुए, (बारह संवच्छराणि) बारह वर्ष तक, (वनवासो वसणं) वनवास में रहे, (तहा अवमाणं पत्तो) तथा अपमान को प्राप्त हुए ।
१. जुहिट्ठिलो इति पाठान्तरः.