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(वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२८३)
आचार्य वसुनन्दि) (पुव्वं व) पूर्व के समान, (णायव्व) जानना चाहिए।
अर्थ- जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रोषध का विधान किया गया है, उसी प्रकार मध्यम प्रोषध का भी विधान जानना चाहिए। किन्तु, यहाँ पर विशेषता केवल यह है कि साधक पानी को छोड़कर (ग्रहण करता है), शेष तीन प्रकार के आहार को त्याग देता है। आवश्यक कार्य को जानकर अपने घरु आरम्भ को भी कर सकता है। शेष पूर्व के समान जानना चाहिए।
व्याख्या– जिस प्रकार गाथा २८३ में चारों प्रकार के आहार का त्याग रूप चार प्रकार का उपवास ग्रहण करने को कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जल के अलावा तीन प्रकार के आहार के त्याग रूप तीन प्रकार का उपवास करने को कहा है। यहाँ एक प्रकार के त्याग रूप उपवास नहीं है। अत: इसे मध्यम उपवास की संज्ञा दी गई है।
मध्यम उपवास का धारी श्रावक अत्यन्त आवश्यक कार्य को जानकर, समझकर सावद्य-रहित अपने घरु आरम्भ को यदि करना, चाहे तो कर भी सकता हैं, किन्तु शेष विधान पूर्व के समान ही जानना चाहिए।
आरम्भ-रहित उपवास का माहात्म्य बताते हुए आ० कार्तिकेय कहते हैं
एक्कं पि णिरारंभं उपवासं जो करेदि उवसंतो। बहु-भव-संचिय-कम्मं सो णाणी खवदि लीलाए।।३७७।। उपवासं कुब्वंतो आरंभं जो करेदि मोहादो।
सो णिय देहं सोसदि ण झाउए कम्म लेस्सं पि।।का०अनु०३७८।। अर्थ- जो ज्ञानी आरम्भ को त्यागकर उपशमभावपूर्वक एक भी उपवास करता है, वह बहुत भवों से संचित कर्म को लीलामात्र में क्षय कर देता है। जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है, वह अपने शरीर को सुखाता है। उसके लेशमात्र भी कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। अत: आरम्भरहित होकर उपवास करने का प्रयत्न करना चाहिए।।२९०-९१।।
जघन्यप्रोषधोपवास की विधि आयंबिल णिव्वयडी' एयट्ठाणं च एयभत्तं वा। जं कीरइ तं णेयं जहण्णमं पोसहविहाणं ।। २९२।।
अन्वयार्थ- (ज) जो (पर्व के दिनों में), (आयंबिल) आचाम्ल; (णिव्वयडी) निर्विकृति, (एयट्ठाणं) एकस्थान, (वा) अथवा, (एयभत्तं) एकभक्त को, (कीरइ) १. ब. णिग्घियडी