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________________ (३४) जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह है कि उसका सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सुदृढ़ भित्ति पर आधारित हो। साधना की इस परम और चरम दशा में पहुंचने के लिए साधक को क्रमशः श्रावक और मुनि आचार की साधना अपेक्षित हो जाती है। इस साधना को हम सामाजिक सन्तुलन को आधार भूमि मानकर चलें। वही उसकी आचार संहिता है। यही उसका कल्याणकारी धर्म है। श्रावकाचार आचार संहिता का प्रथम सोपान है। श्रावक को ही उपासक और श्रामणोपासक कहा जाता है। वह अल्पक्रिया और अल्पकर्मा होने के कारण अणुव्रती होता है और महाव्रती होने की तैयारी में रहता है। इसलिए उसकी सारी जीवन प्रक्रिया दर्पण के समान सुस्पष्ट और विशद रहती है। तथ्य तो यह है कि सही श्रावक होना खरकण्टक के समान है, सरल नहीं है। श्रावक की आचार-संहिता आध्यात्मिक क्षेत्र के लिए एक आधारशिला है। उसका जीवन सार्वभौम. और सर्वहितकारी होना चाहिए। अन्तर्दृष्टि निर्मल और धनार्जन न्याय पूर्वक हो। इसी आधार पर साधारणत: उसके दो भेद किये जाते हैं सामान्य मार्गानुसारी और विशेष श्रावक। मार्गानुसारी श्रावक, पापभीरू, सत्संगी, शिष्टाचारी, न्यायर्जक, . त्रिवर्गसाधक, कृतज्ञ, सौम्य, सलज्ज, परोपकारी, इन्द्रियजयी होता है। इन गुणों से उसकी आध्यात्मिक पिपासा बढ़ती है और सम्यक्त्वपूर्वक व्रत पालन की दिशा में अग्रसर हो जाता है। सामायिक-प्रतिक्रमण, बारहव्रत ग्रहण, दुर्व्यसनत्याग, धर्मश्रवण, प्रतिमाग्रहण आदि अधिष्ठानों से वह अपने जीवन को इतना सुव्यवस्थित कर लेता है कि वहाँ सामाजिक प्रदूषण की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। 'श्रावक' पद में तीन शब्द हैं- श्रा-व-क। यहाँ 'श्री' शब्द तत्त्वार्थ श्रद्धान को व्यक्त करता है, 'व' शब्द धर्मक्षेत्र में धनरूप बीज बोने की प्रेरणा देता है और 'क' शब्द महापापों को दूर करने का संकेत करता है। (अभिधान राजेन्द्र कोश, सांवय शब्द) इसका तात्पर्य है श्रावक वह है जिसमें श्रद्धा, धर्मश्रवण, दान तथा संयम है। श्रद्धा स्वानुभूति पर आधारित है जो यथार्थ देव, गुरु, धर्म और शास्त्राध्ययन से उत्पन्न होती है। कहीं-कहीं श्रावक के लिए माहण शब्द का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है जो किसी की हिंसा नहीं करे। पर्यावरण की दृष्टि से यह परिभाषा सटीक और सयुक्तिक है। समवायांग और वसुनन्दि ने श्रावक को दो भागों में विभक्त किया है दर्शन श्रावक और व्रती श्रावक।' दर्शनश्रावक का चतुर्थ गुणस्थान होता है और व्रती श्रावक का पंचम . गुणस्थान। दिगम्बर परम्परा में उसके तीन प्रकारों का वर्णन मिलता है- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। प्रथम सामान्य है और शेष दोनों विशेष हैं। अन्तर यह है कि नैष्ठिक साधक प्रतिमा-ग्रहण पूर्वक आगे बढ़ता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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