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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१२८) आचार्य वसुनन्दि) व्याख्या- उद्यान में क्रीड़ा करते हुए, खेलते हुए, यादवों ने प्यास से पीड़ित होकर गढ्ढों में भरी हुई पुरानी शराब को पानी समझ कर पी लिया, जिसके कारण वे नाश को प्राप्त हुए। हरिवंशपुराण के आधार पर यह कथा संक्षिप्त रूप से यहां प्रस्तुत करते है - किसी समय भगवान् नेमिजिन का समवशरण गिरनार पर्वत पर आया था। उस समय अपने पुरवासी उनकी वन्दना करने और उपदेश सुनने के लिए गिरनार पर्वत पर पहुंचे थे। धर्मश्रवण के अन्त में बलदेव ने पूछा कि हे भगवन्! यह द्वारिकापुरी कुबेर के द्वारा निर्मित की गई है। उसका विनाश कब और किस प्रकार से होगा? उत्तर में भगवान नेमिनाथ जिन बोले- यह नगरी मद्य (शराब) के निमित्त से बारह वर्ष में द्वीपायन कुमार के. द्वारा भस्म हो जायेगी। यह सुनकर रोहिणा का भाई द्वीपायनकुमार दीक्षित हो गया और इस अवधि को पूर्ण करने के लिये पूर्व दिशा में . जाकर तप करने लगा। तत्पश्चात् वह द्वीपायन मुनि भ्रान्तिवश ‘अब बारह वर्ष बीत चुके है" ऐसा समझ कर फिर से वापिस आ गया और द्वारिका के बाहरीपर्वत के निकट एक शिला पर बैठकर ध्यान करने लगा। इधर जिन बचन के अनुसार मद्य को द्वारिकादाह का कारण जानकर कृष्ण ने प्रजा को मद्य और उसकी सामग्री को भी दूर फेंक देने का आदेश दिया था। तदनुसार मद्यपायी जनों ने मद्य और उसके साधनों को कादम्ब पर्वत के पास एक गड्ढे में फेक दिया था। इसी समय शम्बु कुमार आदि राजकुमार वनक्रीड़ा के लिये उधर गये थे। उन लोगों को प्यास लगी तो उस प्यास से पीड़ित होकर पूर्व निक्षिप्त उस मद्य को पानी समझ कर उन्होंने पी लिया। परिणामस्वरूप वे उन्मत्त होकर नाचते-गाते हुए वे द्वारिका की ओर आ रहे थे। उन्होंने मार्ग में द्वीपायन मुनि को स्थित देखकर और उन्हें द्वारिकादाह कारण समझ कर उनके ऊपर पत्थरों की वर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे क्रोधवश उनके शरीर के बायें कन्धे से अशुभ तैजस का पुतला निकला। जिसके माध्यम से सम्पूर्ण द्वारिका में आग लग गई और द्वारिका भस्म हो गई। इस दुर्घटना में नगरवासियों में कृष्ण और बलभद्र को छोड़कर शेष कोई भी प्राणी जीवित न बचा था और यह सब मद्यपान के कारण ही हुआ था। अत: मद्यपान का त्याग करना चाहिए। यहाँ तक कि बोतलों में बन्द पेय पदार्थों का भी त्याग कर देना चाहिए।।१२३।। . मांसलोलुपी राजा बक मंसासणेण गिद्धो' बगरक्खो एग चक्कणयरम्म। रज्जाओ पन्मट्टो अयसेण मुओ गओ णरयं। । १२७।। १. म. लुद्धो. २. ब. एय..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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